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卐 सत्यराम सा 卐
*घट घट राम रतन है, दादू लखै न कोइ ।*
*सतगुरु सब्दौं पाइये, सहजैं ही गम होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री रज्जबवाणी गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९**
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जन रज्जब गोदावरी, गोरख गिरा सु गाल ।
सूधे१ सिध उँधे२ शिला, देख हुये तत्काल ॥९॥
देखो, गोदावरी कुंभ मेले में गोरक्षनाथ जी के मुख से निकली वाणी(खड़े सिद्ध, बैठे शिला) से तत्काल ही उनके अनुकूल१ तो सिद्ध हो गये और प्रतिकूल२ शिला हो गये । अब यह वाणी बोलने से कहाँ सिद्ध और शिला होते हैं ? अर्थात सिद्धों के मुख से ही ऐसा होता है । वैसे ही गुरु के मुख के शब्द से ही शिष्य मुक्त होते हैं ।
प्रसंग कथा - गोदावरी कुंभ मेले में नाथों की जमात के लिये आने वाली मतीरों की गाड़ी से गोरक्षनाथ ने मार्ग में एक मतीरा से आधा लेकर आधा गाड़ी में रख दिया था । नाथ समूह ने गाड़ी जूंठी करने का दोष लगाकर, मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ के हाथ पीछे की ओर बाँधे, शिरों पर भारी पत्थर रक्खे और धूप में खड़े कर दिये । यह देख कर अच्छे अच्छे संत तो इस दण्ड को अनुचित बताकर सभा में खड़े हो गये अभिमानी बैठे बैठे हँस रहे थे । उसी समय गोरक्षनाथ ने "खड़े सिद्ध बैठे शिला" बाणी कही थी ।
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उहै१ शब्द आनन२ अनन्त, कहैं सुनैं सब कोय ।
पै रज्जब उहिं३ शक्ति बिन, सिद्ध शिला नहिं होय ॥१०॥
वही शब्द अब अनन्त मुखों से कहा सुना जाता है किन्तु उस गोरक्षनाथ की शक्ति बिना न कोई सिद्ध होता है और न कोई शिला होता है ।
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रज्जब मुये जिलावता, मंत्र धन्वन्तरि वैद१ ।
वह विद्या वादी२ अजहुँ, परि वह नुकता३ नहिं कैद४ ॥११॥
पूर्व काल में मंत्र और धन्वन्तरि वैद्य१ मुर्दों को जीवित कर देते थे, वही मंत्रविद्या और उनके कथन२ करने वाले अब भी हैं किन्तु वह मुर्दों को जीवित करने वाली सूक्ष्म बात३ रूप शक्ति उनके अधीन४ अब कहाँ है ? वह तो उन्हीं के साथ थी वैसे ही ज्ञान की बातें करने वाले तो बहुत हैं किन्तु शिष्यों को जीवन्मुक्त बनाने वाले कहाँ हैं ? वे तो सद्गुरु ही होते हैं ।
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रसन रसातल पर पड़ी, ज्ञान गजा१ सु अपार ।
रज्जब जड़ गढ़३ भानते२, गये उठावनहार ॥१२॥
पृथ्वी पर अपार भारी शिलायें व गदायें१ पड़ी हैं किन्तु उनको उठा कर जो किलों को तोड़ते२ थे, वे चलै गये, तब किले कैसे टूटें । वैसे ही जिह्वा से ज्ञान की बातें तो बहुत कही जाती हैं किंतु उन्हें धारण करके जड़ता३ अर्थात अज्ञान को नष्ट करते थे वे साधक नहीं रहे । भाव यह है - योग्य गुरु शिष्यों का संयोग ही मुक्ति का हेतु है, वियोग नहीं है ।
(क्रमशः)

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