#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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*आत्मार्थी भेष*
शब्द सुई सुरति धागा, काया कंथा लाइ ।
दादू जोगी जुग जुग पहरे, कबहूं फाट न जाइ ॥४६॥
४६ - ४८ में आत्म - स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का हेतु भेष बता रहे हैं - वृत्ति धागा को, सद्गुरु शब्द - सुई में पिरो कर स्थूल - सूक्ष्म शरीर को परमात्म - परायण करना रूप कंथा बना कर योगी लोग निरन्तर पहनते हैं=ब्रह्मनिष्ठ रहते हैं । यह कंथा बाहरी कंथा के समान कभी भी जीर्ण - शीर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं होती ।
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ज्ञान गुरु की गूदड़ी, शब्द गुरू का भेख ।
अतीत हमारी आतमा, दादू पँथ अलेख ॥४७॥
हमारी जीवात्मा ही विरक्त है, सद्गुरु का यथार्थ ज्ञान ही उसकी गुदड़ी है । गुरु प्रदत्त प्रणव रूप शब्द का चिन्तन ही उसका भेष चि - है और वह इन्द्रियातीत पर ब्रह्म के ही पँथ में है ।
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इश्क अजब१ अबदाल२ है, दर्दवँद दरवेश३ ।
दादू सिक्का४ सब्र५ है, अक्ल६ पीर७ उपदेश ॥४८॥
इति श्री भेष का अँग समाप्त ॥ १४ ॥ सा - १५३३ ॥
भेषादि के विषय में बुद्धिमान्६ सिद्ध७ सँतों का उपदेश यह है - भगवान् के वियोग व्यथा से सम्पन्न होने का नाम साधु३ होना है । भगवान् का अद्भुत१ प्रेम ही सिद्धि२=चमत्कारादि हैं । सँतोष५ ही भेष चिन्ह४ है ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका भेष का अँग समाप्त : ॥१४॥
(क्रमशः)

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