卐 सत्यराम सा 卐
*दादू स्वाद लागि संसार सब, देखत परलै जाइ ।*
*इन्द्री स्वारथ साच तजि, सबै बंधाणै आइ ॥*
*विष सुख माँहैं रम रहे, माया हित चित लाइ ।*
*सोई संतजन ऊबरे, स्वाद छाड़ि गुण गाइ ॥*
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo
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प्रह्लादजी ने षंडामर्क आचार्यों की अनुपस्थिति में अपार करुणावशात दैत्य बालकों को उपदेश दिया जो शास्त्रोंका सार है और सभी सँसारी लोगों को हृदयङ्गम करने लायक हैं।
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प्रह्लादजी समझाते हुए कहते हैं कि, "हे असुर/दैत्य बालकों तुम ये बात समझ लो कि इस घोर सँसारचक्र से निकलने का उपाय जो बालपण से या जितना शीघ्र करें उतना ही अच्छा है क्योंकि आगे चलकर सँसार के विषयभोगों के बंधन तोडने के लिये और मुश्किल हो जाते हैं। विषयों का चिंतन तथा उसकी किसी भी प्रकार से प्राप्ति ही मनुष्यों के लिये अभिप्सित होता है। घरगृहस्थ की मोहमाया उसे चतुर्दीक घेर लेती है। मैं, मेरी जाती, कुल, खानदान आदि की झुठी पहचानों में खोया मनुष्य परिवार के मोह में और फँसा रहता है। मेरे माता-पिता, मेरे भाई-बहन, मेरी पत्नि-बच्चे और रिश्तेदार आदि में अपने को फँसाकर वह बडप्पन में या दीनता में उलझा रहता है।
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मेरे कर्तव्य के मिथ्याभिमान में भी वह यह भूल जाता है कि सँसार में किसी का कोई ठिकाणा नही है.... और मूल जो बात हैं एक आत्मा की जो सब में एक है और जन्म रहित/मृत्यु रहित...शाश्वत सुख का सागर है वही सब बना हुआ है..... तो आसक्ति किस के साथ जोडें...?? उस आत्मतत्व को पहचाने बिना ही मूढ मनुष्य मैं-मेरा, तू-तेरा के चक्कर में अपनी सारी आयु गँवा देता है और अपनी आत्मा के तरफ एक भी कदम बढाये बिना..... सार-सार को उडा के थोथे को लिये रहता है। आत्मतत्व/भगवान की प्राप्ती एकदम सुलभ इसलिये है कि वह परमात्मा हमारे हृदय में /सबके हृदय में बैठा हमारी प्रतिक्षा कर रहा है.... वह भक्ति से सुलभ है।
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मनुष्य जिन पाशोमें बंधा रहता हैं या अपने को बाँधता है उसमें उसके माता-पिता, कुल, जाति, मकान-दुकान, पत्नि की कोमल भुजवल्ली के मजबूत पाश.... नन्हे नन्हे बालकों की भुजाओं के कोमल पाश.... उनकी तुतली बोली.... ये सभी पाश काटने की उसके पास हिंम्मत नहीं होती। मनुष्य भगवान की भक्ती करे तो ये पाश अपने आप कमजोर होकर निकल जाते हैं। मनुष्य अपने बल-बूते इन पाशों को काट नहीं सकता। इसलिये भगवान श्रीहरि की शरण ग्रहण करे।

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