गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

विरह का अंग १०(१-४)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*रतिवंती आरति करै, राम सनेही आव ।*
*दादू औसर अब मिलै, यहु विरहनी का भाव ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
**श्री रज्जबवाणी विरह का अंग १०** 
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गुरु संयोग वियोग अंग के अनन्तर वियोग और वियोगियों का परिचय देने के लिये विरह का अंग कह रहे हैं - 
कबहुँ सो दिन होयगा, पीव मिलेगा आय । 
रज्जब आनंद आतमा, त्रिविधि ताप तन जाय ॥१॥ 
वह दिन कब उदय होगा ? जिस दिन परब्रह्मका साक्षात्कार होने से शरीर के त्रय ताप दूर होकर जीवात्मा को ब्रह्मानन्द प्राप्त होगा । 
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प्राण पिंड रग रोम सब, हरि दिशि रहे निहारि । 
ज्यों वसुधा१ वनराय२ सौं, विरही चाहै वारि३ ॥२॥ 
जैसे पृथ्वी१ वन पंक्तियों२ से अलग होने लगती है अर्थात वनस्पतियाँ सूखने लगती हैं तब जल३ वृष्टि चाहती है । वैसे ही विरही के प्राण, शरीर, रग, रोम आदि सभी अंग उपांग हरि दर्शनार्थ हरि की ओर ही देखते रहते हैं । 
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साधु शब्द श्रवणों सुने, विरह वियोगी बैन ।
तब तैं वेधी आतमा, रज्जब परे न चैन ॥३॥ 
विरही ने जबसे विरह सम्बधी संतों के शब्द सुने हैं, तब से ही जीवात्मा उनके शब्द-बाण से विद्ध हो गया है, लव मात्र भी शान्ति नहीं मिल रही है ।

बादल विरह वियोग के, दर्द दामिनी१ माँहिं । 
रज्जब घट२ ऐसी घटा, भैझड़३ भागे नाँहिं ॥४॥ 
वियोगी के अन्त:करण२ में निम्नलिखित प्रकार घटा चढ़ रही है - वियोग के अनुभव द्वारा विरह रूप बादल चढ़ रहे हैं, व्यथा रूप बिजली१ चमक रही है, और भयंकर झड़३ लग रहा है, बन्द नहीं होता ।
(क्रमशः)

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