बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९(६१-४)

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू राम रसायन भर धर्या, साधुन शब्द मंझार ।*
*कोई पारखि पीवै प्रीति सौं, समझै शब्द विचार ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
**श्री रज्जबवाणी गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९** 
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कबीर सोई अक्षर सोई बयन१, जण२ जू६ जूवा३ चवंति४ । 
कोई जु मेल्है५ केलिवणी७, अमी रसायन हुंति८ ॥६१॥ 
वही अक्षर और वही वचन१ सब बोलते हैं किन्तु जो६ कोई ज्ञानी जन२ उनमें होने वाली८ ज्ञानामृत रसायन को टपकाता४ है वह दूसरा३ ही होता है और कोई विरला साधक ही उसे अपनी विचार-शक्ति७ से हृदय में धारण५ करता है । इसमें कबीरजी के वचन से अपना विचार प्रमाणिक है यह बताया है ।
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कहँ आशिक१ अल्लाह के, मारे अपने हाथ । 
कहँ आलम२ औजूद३ सौं, कहैं जबाँ४ की बात ॥६२॥
जो अपने साधन रूप हाथों से निजी इन्द्रिय, मन, देहाध्यास आदि पर विजय प्राप्त की है, ऐसे प्रभु के प्रेमी१ गुरु कहाँ, और जो सांसारिक२ भोगों में आसक्त देहाध्यास३ से बँधे हुये हैं, केवल मुख से४ ज्ञान की बातें करते हैं वे कहाँ, अर्थात सच्चे गुरु के संयोग से ही जीव का कल्याण होता है, झूठे गुरु के संयोग से नहीं । 
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देवे किरका१ दरदका, टूटा जोड़े तार । 
दादू साँधे२ सुरति को, सो गुरु पीर३ हमार ॥६३॥
जब से तू भगवद् विमुख हुआ है, तब से दु:ख ही दु:ख पा रहा है ऐसा उपदेश करके भगवद् - विरह दु:ख का कण१ प्रदान करे और अज्ञान वश विषयों में आसक्त होने से जो तार टूट गया है, उसे जोड़ दे अर्थात प्राणी को भजन में लगा दे । वृत्ति भंग के कारण-प्रमाण, विकल्प, विप्पर्य, निद्रा, स्मृति से वृत्ति को बचाकर आत्म-स्वरूप में जोड़२ दे । उक्त लक्षणों से युक्त, सिद्ध३ सन्त है, वही हमारा गुरु है । ६२-६३ में गुरुजी के विचारों द्वारा अपना विचार प्रमाणिक सिद्ध किया है । 
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साँचे सद्गुरु की कथा, जैसा दीपक राग । 
रज्जब वाणी स्वर सुनत, जड़ दिल दीपक जाग ॥६४॥ 
जैसे दीपक राग होता है, वैसे ही सच्चे सद्गुरु की कथा होती है । दीपक राग को यर्थात रूप से गाने वाला राग-सिद्ध गायक जब दीपक राग गाता है तब उसके मुख से दीपक राग के स्वर निकलते ही दूर पड़ा जड़ दीपक बिना ही अग्नि के अपने-आप प्रज्वलित हो जाता है । वैसे ही सच्चे सद्गुरु के मुख से निकली हुई वाणी को सुनने से अज्ञानी के हृदय में भी ज्ञान-दीपक जग जाता है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९ समाप्त ॥सा. ४०९॥
(क्रमशः)

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