बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

= भेष का अंग =(१४/४३-५)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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*आपा निर्द्वैष* 
हिरदै की हरि लेयगा, अंतरजामी राइ । 
साच पियारा राम को, कोटिक कर दिखलाइ ॥ ४३ ॥ 
४३ - ४४ में कहते हैं - अन्तर - हृदय द्वैत रूप द्वेष से रहित होना चाहिये - अन्तर्यामी परमात्मा हृदय की भावना ही ग्रहण करेगा । राम को सत्य ही प्रिय है । सत्य उसी का नाम है - "जैसी भावना, वैसा ही वचन और कार्य हो ।" हृदय में द्वैत रूपी द्वैष है तो बाहर से चाहे कोटि प्रकार के वचन और भेषादि से अद्वैत दिखावें, वे सब व्यर्थ ही होंगे, मुक्तिप्रद सिद्ध न होंगे । 
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दादू मुख की ना गहै, हिरदै की हरि लेइ । 
अंतर सूधा एक सौं, तो बोल्यां दोष न देइ ॥ ४४ ॥ 
परमात्मा मुख के वचन पर ध्यान न देकर हृदय की बात को ही ग्रहण करते हैं । यदि आन्तर हृदय सरलता पूर्वक अद्वैत भावना में रत हो तो वाणी द्वारा भक्ति आदि का उपदेश देने पर द्वैत का दोष न हरि देते और न विचारशील पुरुष ही देते हैं ।
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*इन्द्रियार्थी भेष* 
सब चतुराई देखिये, जो कुछ कीजे आन । 
मन गह राखे एक सौं, दादू साधु सुजान ॥ ४५ ॥
४५ में कहते हैं - इन्द्रिय - पोषणार्थ भेष उत्तम नहीं - आन्तर साधना बिना अन्य जो कुछ भी भेषादि हैं, वे सब इन्द्रिय - पोषणार्थ चतुराई ही दिखाई देती है । अत: समझदार साधक सँत को चाहिये - अपने मन को प्रत्याहार द्वारा ग्रहण करके एक अद्वैत परब्रह्म के चिन्तन में ही लगावे रखे ।
(क्रमशः)

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