शनिवार, 7 अक्टूबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।*
*मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥* 
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साभार ~ https://oshoganga.blogspot.com
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आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः॥
'जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा के अनुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?'
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'मैं' मिटा कि फिर भेद न रहा। जैसे मकान के आसपास हम बागुड़(बाउंडरी) लगा लेते हो, तो पड़ोसी से भिन्न हो गये। फिर बागुड़ हटा दी, बागुड़ जला दी, जमीन तो सदा एक ही थी, बीच की बागुड़ लगा रखी थी, वह हटा दी, तो तत्क्षाण हम सारी पृथ्वी के साथ एक हो गये।
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'मैं' की बागुड़ है। 'मैं' की हमने एक सीमा खींच रखी है अपने चारों तरफ, एक लक्ष्मण रेखा खींच रखी है, जिसके बाहर हम नहीं जाते और न हम किसी को भीतर घुसने देते हैं। जिस दिन तुम इस लक्ष्मण रेखा को मिटा देते हो न फिर कुछ बाहर है, न कुछ फिर भीतर है, बाहर और भीतर एक हुए। बाहर भीतर हुआ, भीतर बाहर हुआ। 
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हमने मकान बना लिया है; ईंट की दीवालें उठा लीं, तो आकाश बाहर रह गया, कुछ आकाश भीतर रह गया। किसी दिन दीवालें हमने गिरा दीं, तो फिर जो भीतर का आकाश है, भीतर न कह सकेंगे उसे; जो बाहर का है, उसे बाहर न कह सकेंगे। बाहर और भीतर तो दीवाल के संदर्भ में सार्थक थे। अब दीवाल ही गिर गयी तो बाहर क्या? भीतर क्या? कैसे कहो बाहर? कैसे कहो भीतर? दीवाल के गिरते ही बाहर-भीतर भी गिर गया। एक ही बचा। 'जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा के अनुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?'
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आत्मवेदं जगत्सर्वं ज्ञात येन महात्मना।
यदृच्छया वर्तमान तं निषेद्धुं क्षमेत क:।।
किसकी क्षमता है? कैसे कोई रोकेगा? कौन रोकेगा? कोई बचा नहीं! जनक यह कह रहे हैं कि मैं तो अब हूं नहीं गुरुदेव, परीक्षा आप किसकी लेते हैं? जिसकी परीक्षा ली जा सकती थी, वह जा चुका। आप मुझे यह भी नहीं कह सकते कि तू ऐसा क्यों करता है, वैसा क्यों नहीं करता? क्योंकि अब नियंत्रण कौन करे? मैं तो रहा नहीं, अब तो जो होता है, होता है।
*यह परम अवस्था की बात है।*
जय सनातन।

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