सोमवार, 9 अक्टूबर 2017

गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९(२१-२४)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*साचा समर्थ गुरु मिल्या, तिन तत्त दिया बताइ ।*
*दादू मोटा महाबली, घट घृत मथि कर खाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री रज्जबवाणी गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९**
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ओंकार आतम अवतार, ता सुत शब्द सदा प्रतिहार१ ।
इष्टों लग पोर्यों२ प्रवेश, आगे रज्जब दाता देश ॥२१॥
ओंकार आत्मा का ही अवतार है । शब्द, सृष्टि का आदि कारण ओंकार है, इसलिये उससे उत्पन्न, उसके पुत्र रूप शब्द ही संदेश-वाहक१ हैं, उन शब्दों में से जो इष्ट देव परब्रह्म की ओर लगते हैं अर्थात परब्रह्म का बोध कराते हैं, उन शब्दों द्वारा ही परब्रह्म के अन्तरंग साधन रूप द्वारों२ में प्रवेश किया जाता है, फिर आगे तो विश्व को आजीविका देने वाले परब्रह्म का निर्विकल्प समाधि रूप देश आ ही जाता है और इसमें ब्रह्म का साक्षात्कार भी हो जाता है ।
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विवेक जीव वस्ती जहाँ, ब्रह्म बासदे१ माँहिं ।
शब्द धूम व्योम२ हि गहै, चुणे चकोर सु नाँहिं ॥२२॥
जहाँ विवेकी जीवों की बस्ती है, वहाँ ब्रह्म रूप अग्नि१ है, उसकी ब्रह्मज्ञान युक्त शबद रूप धुआं को भी जिज्ञासु रूप आकाश२ ग्रहण करता है किन्तु इसे भेदवादी रूप चकोर खा नहीं सकता, कारण - जैसे बस्ती के चूल्हों में चकोर नहीं पहुँचता, वैसे ही विवेकियों के हृदय में भेद-वादियो की वृत्ति नहीं पहुँचती ।
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मति सु मुकर जड़ में दरसै, चेतन को मुख दोष ।
सोइ लाज आतम करे, रज्जब ह्वै संतोष ॥२३॥
जैसे जड़ दर्पण में चेतन मनुष्य को अपने मुख के दोष दीखते हैं तब वह लज्जित होकर उनको हटाता है और हट जाने पर उसे प्रसन्नता होती है । वैसे ही बुद्धि में मल, विक्षेप, आवरण दोष दिखाई देते हैं उनसे जो लज्जित होकर उन्हें हटाता है तब उसे ब्रह्म का साक्षात्कार होकर संतोष होता है ।
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गुरु चंदन शिष वनी विधि, पेखो पलटे पास ।
रज्जब दूर न मूर१ ह्वै, शब्द सकल भर वास ॥२४॥
देखो, चन्दन के पास वन होगा, उसके वृक्षों को तो चंदन अपनी सुगंध भर कर बदल देगा । पर दूर होने पर लेश१ मात्र भी परिवर्तन नहीं हो सकता । वैसे ही गुरु के पास रहने वाले शिष्यों को तो गुरु अपने शब्दों द्वारा उनमें ज्ञान भरकर असंत को संत रूप में बदल देगा, किन्तु दूर होगा उसे लेश मात्र भी नहीं बदलेगा । 
(क्रमशः)

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