मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

= १२१ =


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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू हौं बलिहारी सुरति की, सबकी करै सँभाल ।*
*कीड़ी कुंजर पलक में, करता है प्रतिपाल ॥* 
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य
“प्रपत्ति”
‘नमामि भक्तमाल को’ ~ 'श्री पूर्ण जी'
श्री पूर्ण जी पर भगवान श्री रामचन्द्रजी की पूर्ण कृपा थी. इनका नाम श्री अग्रदेव जी के शिष्यों में आता है. ये एक महान योगी भी थे.
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एक बार इनका शरीर अस्वस्थ हो गया. ठीक होने के लिये औंगरा नामक एक जड़ी की ज़रूरत थी. तब स्वयं प्रभु राम ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और औंगरा लाकर दिया. भगवत्कृपा का अनुभव करके ये प्रेम-विभोर हो गए.

एक बार ये स्वर्णरेखा नदी के तट पर पीपल की छाया में बैठे भगवत्स्मरण कर रहे थे कि इन्हें झपकी आ गयी. पत्तों के हिलने की आवाज़ ने इन्हें जगा दिया. इन्होंने देखा कि एक वानर पेड़ पर इधर से उधर कूद रहा था और उसके मुख से ‘दासोहं राघवेन्द्रस्य’ की ध्वनि निकल रही है. इन्हें पहचानते देर नहीं लगी कि ये स्वयं श्री हनुमान जी महाराज हैं. इन्होंने दण्डवत प्रणाम किया और श्री हनुमान जी की आज्ञा से वहीं अपना स्थान बनाया. साथ ही वहाँ श्री हनुमान जी की प्रतिमा भी स्थापित करी. भगवन्नाम के जप से इनमें सभी सिद्धियाँ आ गयीं थीं. सुख और शांति के इच्छुक लोगों की मनोकामनाएं इनके स्थान पर आकर पूरी हो जाती थीं.
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भक्तवत्सल भगवान अपने भक्त की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ज़रूरत का ख्याल रखते हैं. इसके लिये ज़रुरी है ‘भक्त बनना’. भक्त वह है जो पूरी तरह से भगवान पर आश्रित हो. आश्रित होने का मतलब है अपनी कोई इच्छा ही नहीं होना. जैसे एक नवजात शिशु पूरी तरह से माँ पर आश्रित होता है – अपने बारे में उसकी कोई सोच नहीं होती है, खाने-पीने का ख्याल माँ रखती है, साफ़-सफाई का ख्याल माँ रखती है. बिलकुल ऐसे ही प्रभु का आश्रय लेना है. जब भगवान पर पूरा भरोसा होगा तब कोई इच्छा नहीं होगी और हर ज़रूरत पूरी होगी.
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भगवान को अपने भक्त के पास रहना ही होता है. भगवान पास में हैं तो कैसी फ़िकर ? बस फ़िकर इसी बात की रहनी चाहिए कि भजन होता रहे. भगवत्स्मरण होता रहेगा तो आनन्द ही आनन्द छाया रहेगा.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

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