रविवार, 1 अक्टूबर 2017

= ७७ =


卐 सत्यराम सा 卐
*ना हम छाड़ैं ना गहैं, ऐसा ज्ञान विचार ।*
*मध्य भाव सेवैं सदा, दादू मुक्ति द्वार ॥* 
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साभार ~ https://oshoganga.blogspot.com

अष्टावक्र कहने लगे कि हे जनक, 'जो जानता है कि यह दृश्य स्वभाव से ही कुछ भी नहीं है, वह धीरबुद्धि कैसे देख सकता है कि यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य?' यह बहुत ही गहरा श्लोक है, इन सभी श्लोको में सब से महत्वपूर्ण श्लोक है, इस श्लोक का अर्थ है कि हे जनक इन सारी बातों को सुन कर, मैंने कहा कि धीरपुरुष धन में आकांक्षा न रखेगा; मैंने कहा कि धीरपुरुष मोक्ष में भी आकांक्षा न रखेगा; मैंने कहा, धीर पुरुष साम्राज्य में, महल में, संपत्ति के विस्तार में आकांक्षा न रखेगा, इससे ऐसा तो नहीं होता कि तेरे मन में एक सवाल उठ रहा हो : तो मैं इस सबका त्याग कर दूं? यह बड़ी सूक्ष्म बात है। 
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मेरी ये बातें सुन कर तेरे मन में ऐसा तो नहीं हो रहा है कि इस सबका त्याग कर दूं? क्योंकि धीरपुरुष तो धन की आकांक्षा नहीं रखता, महल की आकांक्षा नहीं रखता, सुख-सुविधा की आकांक्षा नहीं रखता, तो मैं इन सबको छोडूं और जंगल चला जाऊं, यदि तेरे मन में ऐसा हो रहा हो, तो अभी तू धीर पुरुष नहीं। क्योंकि धीरपुरुष न तो वस्तु की आकांक्षा करता है, न वस्तु के त्याग की आकांक्षा करता है। तो तेरे भीतर कहीं भोग बचा है? इसके लिए अब तक के श्लोक कहे कि यदि कहीं भी भोग की आकांक्षा बची है तो खोज ले स्वम् के भीतर। अब यह बड़ा श्लोक, उससे भी बड़ा श्लोक है कि वे कहते हैं, अब मैं तुझसे यह पूछता हूं कि हो सकता है भोग न बचा हो, त्याग की आकांक्षा तो नहीं है कहीं?
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क्योंकि त्याग की आकांक्षा भोग का ही दूसरा रूप है। त्याग की आकांक्षा भोग ही है, सिर के बल खड़ा, कुछ फर्क नहीं। भोग कहता है पकड़ो, त्याग कहता है छोड़ो; परंतु पकड़ने और छोड़ने में जिस पर ध्यान होता है, वह तो एक ही चीज है, धन, कामिनी या काचन। भोग कहता है : 'और स्त्रियां।' त्याग कहता है. 'बिलकुल नहीं। 'परंतु दोनों की नजर तो स्त्री पर होती है या पुरुष पर होती है। भोग कहता है. 'और मिले, और धन, और सुंदर स्त्री। ... त्याग कहता है. 'बिलकुल नहीं; और-और त्याग, परंतु दोनों के मन में अभी 'और' तो होता है। न भोगी को तुम तृप्त पाओगे, न त्यागी को। क्योंकि त्यागी सोचता है अभी और त्याग करना है, और भोगी सोचता है अभी और भोग करना है। 
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ये बड़े आश्चर्य की बात हैं, भोग और त्याग इन दोनों की दृस्टि और, और पे लगी हैं। इस 'और' को ठीक से जानना आवश्यक हैं, इस 'और' में ही सारा संसार समाया है। हम भोगी को भी बेचैन पाएंगे। वह कहता है कि है, कार तो है, परंतु और बड़ी चाहिए; मकान है, परंतुऔर बड़ा चाहिए। यदि हम त्यागी के भीतर खोजे, तो पाएंगे की त्यागी कहता है, उपवास किए तो, परन्तु और, त्याग किया तो, परन्तु और, अभी और बहुत कुछ छोड़ने को है। क्रोध छोड़ा, माया छोड़ी, मोह छोड़ना है, प्रतिष्ठा छोड़नी है, अहंकार छोड़ना है। परन्तु 'और' की दौड़ तो बराबर जारी है। न भोगी तृप्त है, न त्यागी तृप्त है।
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स्वभावादेव शानानो दृश्यमेतन किंचन।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी:॥
जो वस्तुत: धीर हो गया, जो वस्तुत: धैर्य को उपलब्ध हो गया, जो वस्तुत: शात हो गया और जिसने वस्तुत: जान लिया कि ये सब दृश्य स्वभाव से ही हैं, और कुछ भी नहीं हैं, उसके मन में न तो ग्रहण करने की कोई वासना उठती, और न त्याग की कोई वासना उठती है। भोगी और योगी में बहुत अंतर नहीं है, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भोगी और त्यागी में कोई भेद नहीं है; वे एक ही तर्क की दो व्याख्याएं हैं। परन्तु तर्क एक ही है। वास्तविक धीर तो वही है जो दोनों के पार हो गया।

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