#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*सूरज सन्मुख आरसी, पावक किया प्रकास ।*
*दादू सांई साधु बिच, सहजैं निपजै दास ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री रज्जबवाणी गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९**
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गुरु शिष नर नार्यों मिल्यूं, ब्रह्म बाल विधि होय ।
शब्द शुक्र१ सुरति२ सुन्दरि, फल पावे नहिं कोय ॥४९॥
नर-नारी के मिलन विधि से ही बालक उत्पन्न होता है, विदेश से नारी के पास वीर्य१ भेज दिया जाय, तो बालक रूप फल नहीं मिलता है । वैसे ही गुरु शिष्य से मिलने पर ही ब्रह्म साक्षात्कार होता है, गुरु की पुस्तक पढ़ने से ही शिष्य की वृत्ति२ को अपरोक्ष ब्रह्म - ज्ञान रूप फल नहीं मिलता ।
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त्रिविध भाँति तरणी१ तपे, तिमिर हंत समय भाय२ ।
सविता३ सद्गुरु आथवैं४, पाला५ अध६ न गराय७ ॥५०॥
ग्रीष्म, वर्षा और शीत काल इन तीनों समयों में सूर्य१ तीन प्रकार से तपते हैं तथा अंधकार को तीनों ही समय में सम भाव२ से नष्ट करते हैं, किन्तु सूर्य३ छिप४ जाने पर बर्फ५ तो नहीं गलता७ । वैसे ही सद्गुरु भक्ति, योग और ज्ञान के ग्रंथ लिखकर उपदेश तो सबको सम भाव से ही करते हैं, किन्तु साधक के सन्मुख न होने से उसके हृदय का संशय विपर्य्य रूप पाप६ नष्ट नहीं होता ।
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रज्जब साधु शब्द सुरही१ सु पय२, कीये पलट अशुद्ध ।
अब अर्थ घृत काढे बिना, दीपक बले३ न दुद्ध ॥५१॥
गो१ के दूध२ में जामन देकर उसे दही रूप में बदल दिया जाय तब न तो दूध रहता है और न घृत निकाले बिना उससे दीपक ही जलता३ है । वैसे ही लोक, गुरु-रूप संत के वचन बदल लेते हैं तब न तो वे शुद्ध रूप में रहते हैं और न उनसे यथार्थ अर्थ निकाले बिना ज्ञान-दीपक ही जलता है ।
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काष्ट लोह पाषाण शब्द सत, अगनी अर्थ प्रकाश ।
कौन काम का सौं सरे, सुन हुँ विवेकी दास ॥५२॥
काष्ट, लोहा, पत्थर इनमे अग्नि होता है और उसका प्रकाश भी होता है किन्तु किस के प्रकाश से कौन सा काम सिद्ध होता है ? अर्थात मनुष्य बिना कुछ भी नहीं होता । वैसे ही हे विवेकी दास सुन ! सत्य शब्दों में अर्थ हैं किन्तु सद्गुरु बिना किसके अर्थ से कौन सा काम होता है ? अर्थात गुरु मुख द्वारा सुने शब्दों से ही ज्ञान द्वारा ब्रह्म प्राप्ति रूप कार्य सिद्ध होता है ।
(क्रमशः)

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