बुधवार, 1 नवंबर 2017

विरह का अंग १०(२५-८)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू हरदम मांहि दिवान, कहूँ दरुने दर्द सौं ।*
*दर्द दरुने जाइ, जब देखूँ दीदार कों ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
**विरह का अंग १०**
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रज्जब भय की भाकसी१, करणी२ कूंदै३ पाय । 
हाथ हरकड़ी हेत की, सरक्या रती न जाय ॥२५॥ 
हमारा मन हरि-वियोग जन्य भय रूप कैद१ की कोठड़ी में बन्द है उसके कर्तव्य२ रूप कुंडा३ लगा है और उसके वृत्ति रूप हाथ में हरि-प्रेम रूप हथकड़ी पड़ी है, अत: विषयों की ओर उससे किंचित मात्र भी नहीं चला जाता । 
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इन्द्री अनंग१ न ऊतरे, आँख्यूं आँसू जाँहिं । 
रज्जब मन मोरा भये, महापुरुष महि२ मांहि ॥२६॥ 
पृथ्वी२ में हरि विरही रूप महापुरुषों के मन मयूर पक्षी के समान हो गये हैं, जैसे मोर पक्षी के सामने मोरनी आने पर मोर की आँखों से आँसू गिरते हैं तब मूत्र इन्द्रिय से बिन्दु१ नहीं गिरता, वैसे ही हरि-विरह भक्तों के आँखों से अश्रु गिरते रहते है अत: उन्हें काम नहीं सताता । 
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इन्द्रिय आभै१ पंच मिल, घट२ सु घटा जुरी आय । 
रज्जब विषय न वर्ष ही, विरह वायु ले जाय ॥२७॥ 
पंच ज्ञानेन्द्रियों का विषयाशा रूप बादल१ मिलकर अन्त:करण२ रूप आकाश में अच्छी घटा बन गई है, फिर भी उक्त घटा विषय-वारि नहीं वर्षा सकती, कारण, इसे विरह रूप वायु उड़ाकर ले जाता है, अर्थात हृदय में भगवद् विरह आने पर विषयाशा तथा विषयासक्ति नहीं रहती है । 
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विरह सु वोहित१ बैठकर, तिरिये शुक्र२ समंद ।
इहिं ठाहर पौहण३ यही, पार पहुँचण बंद४ ॥२८ ॥ 
विरह रूप जहाज१ पर बैठकर काम२-समुद्र को तैरना चाहिये । इस काम-समुद्र के पार जाने के लिये यह भगवद् विरह ही श्रेष्ठ वाहन३ है, इसी से काम-समुद्र के बाँध४ पर पहुँचा जाता है अर्थात काम को जीता जाता है ।
(क्रमशः)

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