रविवार, 26 नवंबर 2017

विरक्त् का अंग १५(१-४)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू माया बैरिण जीव की, जनि कोइ लावे प्रीति ।*
*माया देखे नरक कर, यह संतन की रीति ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विरक्त् का अंग १५* 
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इस अंग में विरक्त विषयक विचार दिखा रहे हैं ~ 
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त्यागी ताखे१ की दशा, तहां न माया घास ।
जन रज्जब तब जानिये, ब्रह्म अग्नि परकाश ॥१॥
विरक्त्त पुरुष तक्षक१ जाति के सर्प के समान होता है । तक्षक जाति के सर्प की बाँबी के पास लगभग एक बीधा भूमि में घास नहीं होता, वैसे ही विरक्त के पास माया नहीं रहती । ऐसा विरक्त्त हो तभी समझना चाहिये कि इसमें ब्रह्म ज्ञानाग्नि का प्रकाश हुआ है । 
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गृह दारा सुत वित्त सों, यहु मन भया उदास ।
जन रज्जब राम हिं रच्या, छूटया जगत निवास ॥२॥
विरक्त्त का यह चंचल मन भी घर, नारी, पुत्र, धनादि से उदास हो जाता है, उसका सांसारिक विषयों में रहना छूट जाता है और वह राम में ही अनुरक्त्त रहता है । 
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त्याग तेग सौं मारिये, रज्जब लंगर१ लोभ । 
मनसा वाचा कर्मना, तो तिहुं लोक में शोभ ॥३॥ 
ढीठ१ लोभ को वैराग्य रूप तलवार से मारना चाहिये, हम मन, वचन, कर्म से कहते हैं, लोभ को नष्ट करने से ही तीनों लोकों में शोभा होती है । 
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रज्जब रह गया राम में, तज रामति का द्वन्द्व । 
नभ नीर परसे नहीं, भया सीप का बूंद ॥४॥ 
स्वाति जल का बिन्दु सीप में जाकर मोती बन जाता है तब अन्य जल के समान न तो आकाश में जाता और न जल से मिलता, वैसे ही संसार में भ्रमण के हेतु काम, क्रोधादि द्वन्द्वों का त्याग से विरक्त्त का मन राम में ही स्थिर रह जाता है, पुन: सांसारिक विषयों में अनुरक्त्त नहीं होता ।
(क्रमशः)

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