रविवार, 26 नवंबर 2017

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू निबहै त्यौं चलै, धीरै धीरज मांहि ।*
*परसेगा पीव एक दिन, दादू थाके नांहि ॥* 
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साभार ~ ‎Anand Nareliya

एक राजा हुआ, उसने दूर-दूर खबर की कि जो भी धर्म श्रेष्ठ होगा उसे मैं स्वीकार करूंगा। अनेक-अनेक पंडित आए, समझाते थे कि हमारा धर्म श्रेष्ठ है, दूसरा पंडित समझाता कि हमारा धर्म श्रेष्ठ है। वे विवाद भी करते, एक-दूसरे को हराने और पराजित करने की कोशिश भी करते। लेकिन राजा के सामने कुछ सिद्ध न हो पाया कि कौन धर्म चरम धर्म है, कौन सर्वोत्कृष्ट धर्म है। और जब यही सिद्ध न हुआ तो राजा अधर्म के जीवन में जीता रहा। उसने कहा, जिस दिन सर्वश्रेष्ठ धर्म उपलब्ध हो जाएगा उस दिन मैं धर्म का अनुसरण करूंगा। जब तक सर्वश्रेष्ठ धर्म का पता ही नहीं है तो मैं कैसे जीवन को छोडूं और बदलूं ! तो जीवन तो वह अधर्म में जीता रहा, लेकिन सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में पंडितों के विवाद सुनता रहा। सभी धर्मों के लोग आए। और किसी भी धर्म का आदमी आया, उसने कहा, मेरा धर्म श्रेष्ठ है, दूसरों के नीचे हैं। राजा उनकी दलीलें सुनता; दूसरों को आमंत्रित करता, उनकी दलीलें सुनता। ऐसे जीवन बीता। जीवन तो है छोटा और दलीलें तो हैं बड़ी। तो दलीलों में तो जीवन बिलकुल बीत ही सकता है, कोई कठिनाई नहीं है।
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फिर तो राजा बूढ़ा होने लगा और घबड़ा गया कि अब क्या होगा? अधर्म का जीवन दुख देने लगा, पीड़ा लाने लगा। लेकिन जब श्रेष्ठ धर्म ही न मिले तो वह चले भी कैसे धर्म की राह पर? अंततः एक भिखारी उसके द्वार पर आया और उस भिखारी ने कहा कि मैंने सुना है कि तुम पीड़ित हो और परेशान हो। तुम्हारे चेहरे से भी दिखाई पड़ता है।
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उस राजा ने कहा, मैं सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में हूं। भिखारी ने कहा, सर्वश्रेष्ठ धर्म? क्या बहुत धर्म होते हैं दुनिया में कि उसमें कोई श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ का भी सवाल उठे? धर्म तो एक है। कोई धर्म बुरा और कोई धर्म अच्छा, यह तो होता ही नहीं, तो सर्वश्रेष्ठ का कोई सवाल नहीं। राजा बोला, लेकिन मेरे पास तो जितने लोग आए उन्होंने कहा, हमारा धर्म श्रेष्ठ है।
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उस फकीर ने कहा, जरूर उन्होंने धर्म के नाम से, मैं श्रेष्ठ हूं, यही कहा होगा। उनका अहंकार बोला होगा। धर्म तो एक है, अहंकार अनेक हैं। राजा से उसने कहा कि जब भी कोई पंथ से बोलता है या किसी धर्म से बोलता है, तो समझ लेना कि वह धर्म के पक्ष में नहीं बोल रहा, अपने पक्ष में बोल रहा है। और जहां पक्ष है, जहां पंथ है, वहां धर्म नहीं होता। धर्म तो वहीं होता है जहां व्यक्ति निष्पक्ष होता है। पक्षपाती मन में धर्म नहीं हो सकता। राजा प्रभावित हुआ। उसने कहा, तो फिर तुम मुझे बताओ मैं क्या करूं?
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उस फकीर ने कहा कि आओ नदी के पार चलें, वहां मैं बताऊंगा। वे नदी के किनारे गए। उस फकीर ने कहा कि जो सर्वश्रेष्ठ नाव हो तुम्हारे राजधानी की वह बुलाओ, तो उसमें बैठ कर उस तरफ चलें। राजा ने कहा, यह बिलकुल ठीक। राजा जाए तो सर्वश्रेष्ठ नाव आनी चाहिए। बीस-पच्चीस जो अच्छी से अच्छी नावें थीं वे बुलाई गईं। सुबह वे गए थे, दोपहर इसी में हो गई, सब नावें इकट्ठी हुईं। अब वे घाट के किनारे भूखे बैठे हुए हैं। और वह फकीर भी अजीब था, एक-एक नाव में दोष निकालने लगा कि इसमें यह खराबी है, इसमें यह दाग लगा हुआ है, यह तो आपके बैठने योग्य नहीं है। इसमें मैं कैसे बैठ सकता हूं, यह तो बहुत छोटी है।
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राजा भी थक गया, सांझ हो गई, सूरज डूबने लगा। राजा ने कहा, क्या बकवास लगा रखी है! नाव कोई भी काम दे सकती है। और अगर नाव कोई भी पसंद नहीं पड़ती तो नदी भी कोई भारी नहीं, चलो हम तैर कर ही निकल चलें। छोटी सी नदी है, अभी कभी के उस तरफ पहुंच गए होते।
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फकीर जैसे इसकी प्रतीक्षा में ही था, उसने कहा, मैं इसी की प्रतीक्षा में था। तुम्हें जीवन में यह खयाल नहीं आया कि धर्मों की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो, तैर कर भी निकला जा सकता है। और सच तो यह है कि धर्म की कोई नाव नहीं होती। व्यक्तिगत रूप से ही तैरना पड़ता है। धर्म की कोई नाव नहीं होती।
……….OSHO 
समाधि कमल–(प्रवचन–15)

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