卐 सत्यराम सा 卐
*दादू इस आकार तैं, दूजा सूक्षम लोक ।*
*तातैं आगे और है, तहँ वहाँ हर्ष न शोक ॥*
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साभार ~ oshoganga
कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते।
मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्॥
(अष्टावक्र: महागीता)
'कहीं तो शरीर का दुख है, कहीं वाणी दुखी है और कहीं मन दुखी होता है। इसलिए तीनों को त्याग कर मैं पुरुषार्थ में, आत्मानंद में सुखपूर्वक स्थित हू।
कुत्र अपि कायस्थ खेद............।
दुख हैं शरीर के, हजार दुख हैं। शरीर में सब रोग छिपे पड़े हैं। समय पा कर कोई रोग प्रगट हो जाता है, परन्तु पड़ा तो होता ही है भीतर। सब रोग ले कर हम पैदा हुए हैं। शरीर को तो व्याधि कहा है ज्ञानियों ने। सब व्याधियों की जड़ वहां है, क्योंकि शरीर पहली व्याधि है। शरीर में होना ही व्याधि में होना है। शरीर में होना उपाधि में होना है।
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उलझ गए फिर और उलझनें तो अपने आप आती चली जाती हैं। तो शरीर का दुख है कहीं। कहीं कोई दुखी है बीमारी से, कहीं कोई दुखी है बुढ़ापे से, कहीं कोई दुखी है कि कुरूप है। और आश्चर्य यह है कि, जो स्वस्थ हैं वे सुखी नहीं हैं। जो सुंदर हैं वे भी सुखी नहीं हैं। तो ऐसा लगता है कि शरीर के साथ सुख संभव ही नहीं है। रोगी दुखी है, समझ में आता है; परन्तु स्वस्थ क्या कर रहा है? वह भी कोई सुखी नहीं दिखायी पड़ता।
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इस जीवन में कुछ ऐसा होता है कि शरीर के साथ सुखी होना संभव ही नहीं है। शरीर के साथ सुख का कोई संबंध नहीं है। कहीं तो शरीर का दुख है, कहीं वाणी दुखी है। कोई इसलिए दुखी है कि उसके पास बुद्धि नहीं है, विचार नहीं, वाणी नहीं। और जिनके पास बुद्धि है, वाणी है, विचार है, उनसे पूछो। उनमें से अनेक आत्महत्या कर लेते हैं, पागल हो जाते हैं।
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जिनके पास वाणी नहीं है, वे गूंगे हैं। और जिनके पास वाणी है, वे विक्षिप्त हो जाते हैं। जिनके पास विचार नहीं है, वे दीन-हीन हैं, वे तड़पते हैं कि यदि, हमारे पास बुद्धि होती। जिनके पास है, वे बुद्धि का क्या करते हैं? स्वम् के लिए और उलझने खड़ी कर लेते हैं, हजार उलझनें खड़ी कर लेते हैं, चिंताओं का जाल, संताप का जाल फैला लेते हैं। जनक कहते हैं: बड़े अदभुत दुख हैं शरीर के, वाणी के, मन के, इसलिए मैं तीनों को त्याग कर, अपने में डूब कर, वहां खड़ा हो गया हूं, जहां न मैं वाणी हूं, न शरीर, न मन। उस साक्षी भाव में सुखपूर्वक स्थित हूं।
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