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卐 सत्यराम सा 卐
*प्राण कवल मुख राम कहि, मन पवना मुख राम ।*
*दादू सुरति मुख राम कहि, ब्रह्म शून्य निज ठाम ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*विरक्त का अंग १५*
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बादल वायु वारि नर मोती, सगुण निर्गुण राखे राग ।
केलि कपूर बहुरि नहिं आवे, यूं रज्जब बींधा वैराग ॥२१॥
बादल, वायु, जल, नर मोती और सगुण हैं, किन्तु निर्गुण में प्रेम रखते हैं । बादल, आकाश में ही रहता है, वायु आकाश में ही चलता है, पृथ्वी पड़ा जल आकाश में ही चढ़ता है । आकाश में इन्हें धारण करने का कोई गुण भी नहीं है किन्तु फिर भी उक्त तीनों का प्रेम आकाश में है । नर गुणों से युक्त होने पर भी निर्गुण ब्रह्म से प्रेम करता है । मोती बहु गुण युक्त होने पर भी हीन गुण वाली सीप में ही प्रेम करता है, अन्य में नहीं बनता, किन्तु फिर भी ये कपूर और विरक्त के समान नहीं हो सकते । कपूर केले में बनता है फिर भी केले से उड़ जाने के पीछे पुन: केले में नहीं आता, वैसे ही विरक्त संसार में जन्मता है किन्तु वह वैराग से इतना विद्ध हो जाता है कि पुन: संसार में नहीं जन्मता । अत: विरक्त का ही निर्गुण प्रेम सफल है, बादल आदि का नहीं कारण वे पुन: पुन: सगुण संसार में आते रहते हैं ।
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धन्य जु निकस्या धोम ज्यों, रह्या शून्य१ कर सीर२ ।
रज्जब तीर कमान ज्यों, निकसि फिरै बहु वीर ॥२२॥
धनुष से बाण जाता है और पुन: वीर के द्वारा कमान पर चढाया जाता है ऐसे विरक्त तो संसार में बहुत हैं जो घरादि को त्याग देते हैं और पुन: भोग-वासना के द्वारा जन्मादि संसार में आते हैं, किन्तु जैसे रसोई से निकला हुआ धूआँ पुन: रसोई में नहीं आता है, आकाश१ में लीन२ हो जाता है, वैसे ही संसार भावना से निकल कर पुन: भोग-भावना से जन्मादि संसार में नहीं आता है, ब्रह्म१ में लीन हो जाता है वही विरक्त वीर धन्य है ।
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प्राणी पारे परि१ रमहिं२, वामा३ वैद्य न दूर ।
उभय न पावे उभय कर, जो ह्वै गये कपूर ॥२३॥
अग्नि संस्कार करते समय जब तक वैद्य पास रहता है तब तक पारा उड़ नहीं सकता, वैद्य के वश में पड़ने१ से अपने आधार पात्र में ही विचरता२ है । वैसे ही जब तक प्राणी नारी३ के वश में पड़ा रहता है तब तक तो घर में रहता है । वैद्य दूर चला जाय और पारा कपूर के समान उड़ जाय तो फिर वैद्य के हाथ नहीं आता । वैसे ही जो पुरुष नारी के दूर रहने पर सत्संग द्वारा परम विरक्त होकर घर से निकल जाय तो वह भी उड़े हुये कपूर के समान फिर नारी के हाथ नहीं आता ।
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पारे प्राणि कपूर है, उभय उडै सम साथ ।
एक सु वामा वैद्य कर, एक सु नाम हिं हाथ ॥२४॥
पारा और प्राणी कपूर के समान हैं, जैसे कपूर उड़ जाता है वैसे ही उक्त दोनों ही उड़ जाते हैं किन्तु जैसे काली मिरचों के साथ रहने पर कपूर नहीं उड़ पाता है वैसे ही वैद्य के अधीन पारा नहीं उड़ पाता है और नारी के अधीन प्राणी विरक्त नहीं हो पाता । पारा वैद्य के हाथ के हाथ में रहता है और पुरुष नारी के हाथ में रहता है, किन्तु जो पारा अपनी ख्याति के हाथ में आ जाता है अर्थात् पारा उड़ने वाला है, यह प्रसिद्ध है अत: जो उड़ जाता है वह वैद्य के अधीन नहीं रहता तथा जो पुरुष भगवान् नाम के हाथ आ जाता है अर्थात निरंतर नाम चिन्तन करता है वह विरक्त हो जाता है और जैसे कपूर उड़ कर आकाश में मिल जाता है वैसे ही भोग-वासना को त्याग कर ज्ञान ब्रह्म में मिल जाता है, वह नारी के अधीन नहीं रहता ।
(क्रमशः)
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