卐 सत्यराम सा 卐
*मेरा गुरु आप अकेला खेलै ।
*आपै देवै आपै लेवै, आपै द्वै कर मेलै ॥टेक॥*
*आपै आप उपावै माया, पंच तत्त्व कर काया ।*
*जीव जन्म ले जग में आया, आया काया माया ॥१॥*
*धरती अंबर महल उपाया, सब जग धंधै लाया ।*
*आपै अलख निरंजन राया, राया लाया पाया ॥२॥*
*चन्द सूर दोइ दीपक कीन्हा, रात दिवस कर लीन्हा ।*
*राजिक रिजक सबन को दीन्हा, दीन्हा लीन्हा कीन्हा ॥३॥*
*परम गुरु सो प्राण हमारा, सब सुख देवै सारा ।*
*दादू खेलै अनन्त अपारा, अपारा सारा हमारा ॥४॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
सब मांग रहे हैँ एक दूसरे से। और उससे मांग रहे हैँ, जो खुद हमारे पास मांगने आया है। भिखमंगोँ की भीड़ है, सब एक-दूसरे के सामने भिक्षापात्र लिये खड़े हैँ कि कुछ मिल जाए। और सभी मांग रहे हैँ। कभी सोचा इस पर कि ये सारा संसार भिखमंगोँ की भीड़ है ! एक आया है दूसरे के पास कि मुझे थोड़ा सुख दे, दूसरा भी पहले से जुड़ा है कि थोड़ा सुख मिले।
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न पहले ने कभी भीतर सुख पाया है, न दूसरे ने कभी पाया है। जो पास नहीँ है, उसे देगेँ कैसे? जिसे स्वयं नही पाया है, उसे दूसरोँ को देने चले गए हैँ। इसीलिये जितने संबंध है मनुष्य के, सब दुख देते हैँ, सुख दे नहीँ सकते। पिता पुत्र को सुख दे रहा है। बेटा मां को सुख दे रहा है। पत्नी पति को सुख दे रही है।
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देने वाले की सोच है कि दे रहा हूं और मिलने वाले को दुख मिल रहा है। संपूर्ण संसार एक-दूसरे को सुख दे रहा है, और सब छाती पीट रहे हैँ कि हम दुखी हैँ; कोई सुखी नहीँ हो रहा है। जो स्वयं के पास है ही नहीँ, उसे दूसरे को देने का दावा किया जा रहा है। सुखी होने का एकमात्र उपाय है किसी के पास मांगने ना जाए मनुष्य। सुख है ही नहीँ दूसरे के पास। मनुष्य मांग छोड़ दे और मांगना छूटते ही भीतर झरना फूट जाता है।
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मांग समाप्त होते ही भीतर जो सुख का झरना फूट पड़ता है, ये सुख अकारण है और अचानक रोआं-2 इस सुख से भर जाता है। मनुष्य सुख मांगता है और सुख देना चाहता है। सुख दे नहीँ पाता, सुख मिल नहीँ पाता। सिद्ध-जिसकी अपनी सुख-धार फूट पड़ती है,किसी से सुख मांगता नहीँ और किसी को सुख देना भी नहीँ चाहता;परंतु ऐसे व्यक्ति से अनेको को अनायास सुख मिल जाता है।
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स्वयं को बेशर्त कर ले, मांग को छोड़ दे, ये आशा तोड़ दे कि कहीँ और से सुख आएगा, तब एक दिन सुख मिल जाता है। ये ही सिद्धावस्था है; जब स्वयं की सुख-धार उपलब्ध होती है।
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