शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

= ३१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*साधु न कोई पग भरै, कबहूँ राज दुवार ।*
*दादू उलटा आप में, बैठा ब्रह्म विचार ॥*
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य

“प्रपत्ति”
‘नमामि भक्तमाल को’ ~ **श्री बीठलदास जी**
‘बिठलदास हरि भक्ति के दुहूँ हाथ लाडू लिया’
श्री नाभाजी महाराज कहते हैं कि श्री बीठलदास जी के दोनों हाथों में हरिभक्ति के लड्डू रहे. श्री हरिभक्ति के दो लड्डू क्या हैं ? वह हैं – इस लोक में संत सेवा और परलोक में प्रभु सेवा. जब किसी के जीवन में हरिभक्ति आती है तो उसे ये दो फल प्राप्त होते हैं – संत और भगवंत की सेवा.
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हम लोग समझते हैं कि संतों की सेवा करना या भगवान की सेवा करना ‘साधना’ है. पर ध्यान दीजिए, वास्तव में यह ‘साध्य’(फल) हैं. जब भक्ति दृढ़ होती है तब संत सेवा करने का अवसर मिलता है. अपनी मर्ज़ी से, अपनी इच्छा से, अपने सामर्थ्य से कोई संत सेवा नहीं कर सकता है. वो तो जीवन में तभी घटेगी जब भक्ति होगी. यह भक्ति का प्रसाद है.
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श्री बीठलदास जी रैदासवंशी थे परन्तु भगवद्भक्ति के कारण बड़ी-बड़ी सभाओं में बड़े-बड़े महापुरुषों से सम्मान पाते थे. श्री नाभा जी कहते हैं कि इन्होंने कभी अभिमानी धनिकों की या हरिविमुखों की खुशामद नहीं करी. ये उन लोगों को सदा तुच्छ मानकर उनके सामने ऐठ कर चलते थे. उनको सांसारिकता का अभिमान तो इनको भी उनके सामने भगवद बल का गुमान. किसी के पास कितना भी सांसारिक बल क्यों न हो वह तभी काम आयेगा जब हरि की कृपा होगी. तो जिसके पास श्री हरि की भक्ति हो वह ऐसे लोगों के सामने क्यों झुके. ये तो भगवद्भक्तों के सामने सदा ही झुके रहते थे और उनकी चरणरज अपने शीश पर धारण करते थे. श्री भगवान की लीला के पदों को पढ़ते-पढ़ते इन्होंने शरीर छोड़ा और भगवद्धाम को प्राप्त किया.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

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