*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अँग १६*
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*घर वन *
काहे दादू घर रहे, काहे वन खँड जाइ ।
घर वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाइ ॥२८॥
२८ - ३२ में घर वो वन में रहने से
ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती,
यह कहते हैं - क्यों तो घर में रहने का आग्रह रक्खे और क्यों वन में
जाय, राम तो घर और वन के आश्रय से रहित सर्वत्र व्यापक है ।
अत: मध्य निष्पक्ष मार्ग की साधन पद्धति से उस व्यापक राम में ही वृत्ति लगा ।
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दादू जिन प्राणी कर जानिया, घर वन एक समान ।
घर माँहीं वन ज्यों रहे, सोई साधु सुजान ॥२९॥
जिस प्राणी ने राम को व्यापक समझ कर घर
और वन को एक जैसा जाना है और वन के समान विरक्त भाव से घर में रहकर भजन करता है , वही बुद्धिमान् सन्त
है ।
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सब जग माहीं एकला, देह निरँतर वास ।
दादू कारण राम के, घर वन माँहिं उदास ॥३०॥
जगत् में रहता हुआ भी सम्पूर्ण साँसारिक
भोग - वासनाओं से अलग रहकर निरँतर शरीर के भीतर अन्त:करण में ही वृत्ति का निरोध
करके घर - वनादि सभी स्थानों में राम के साक्षात्कारार्थ खिन्न रहता है वही
श्रेष्ठ भक्त है ।
(क्रमशः)
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