#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू दरिया यहु संसार है, तामें राम नाम निज नाव ।*
*दादू ढील न कीजिये, यहु औसर यहु डाव ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*सुमिरण का अंग २०*
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तू हीं तू ही तन में करे, इक तत तृष१ तिहुँ काल ।
जन रज्जब रुचि सौं रटे, भाग भले तिहि भाल ॥४१॥
शरीर में मनोवृत्ति निरन्तर 'तू हीं तू हीं' करती रहती है । तीनों कालों में एक ब्रह्म तत्त्व को प्राप्त करने की ही तृषा१ अर्थात अभिलाषा लगी रहती है । इस प्रकार जो प्रीति से हरि नाम की रट लगाये रहता है उसका का भाग्य विशाल है ।
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रज्जब प्राण पिंड ब्रह्माण्ड मधि, जीव जगत गुरु नाम ।
संत सजीवन सो सुमिर, तिनकी मैं बलि जाम ॥४२॥
ब्रह्माण्ड में जो प्राण अर्थात सूक्ष्म शरीर धारी और पिंड अर्थात स्थूल शरीर धारी जगत् के जीव गुरु द्वारा प्रप्त हुये ईश्वर नाम का स्मरण करते हैं, वे सजीवन संत हो जाते हैं अर्थात ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं, उनकी मैं बलिहारी जाता हूँ ।
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नाम लेत निर्भय भये, साधू सुर नर शेष ।
जन रज्जब लै लूटि हैं, मानुष देही देश ॥४३॥
नाम-स्मरण करने से ही, शेषजी, देवता, संत और साधारण नर भी काल-कर्म के भय से रहित हुये हैं । इस मनुष्य देह रूप देश में नाम-स्मरण रूप धन की वृत्ति द्वारा चिन्तन करना रूप लूट विशेष रूप से होती है, अत: मानव को इसमें प्रमाद नहीं करना चाहिये ।
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सदा सनेह रहै सुमिरन सौ, भाग्य भजन में भीगा भाव ।
जन रज्जब जप जीवन जीया, मानुष देही पाया डाँव ॥४४॥
जिस का हरि-स्मरण में सदा प्रेम है, अन्त:करण के सभी भाव भजन-रस से भीगे रहते हैं, वह भाग्यशाली है । अत: मनुष्य देह रूप सुन्दर दाँव प्राप्त हुआ है, इससे जीवों के जीवन रूप परमात्मा के नाम का जप अवश्य करना चाहिये ।
(क्रमशः)
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