गुरुवार, 4 जनवरी 2018

= ४३ =



卐 सत्यराम सा 卐
*बैस गुफा में ज्योति विचारै,*
*तब तेहिं सूझै त्रिभुवन राइ ।*
*अंतर आप मिलै अविनाशी,*
*पद आनन्द काल नहिं खाइ ॥* 
*जामण मरण जाइ, भव भाजै,*
*अवरण के घर वरण समाइ ।*
*दादू जाय मिलै जगजीवन,*
*तब यहु आवागमन विलाइ ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

दुख में गिरना सुख की वासना का परिणाम है। सुख न छोड़ा, तो दुख भी न छूटेगा। लेकिन दुख तो सभी छोड़ना चाहते हैँ, फिर भी दुख छूटता नहीँ; क्योँकि सुख नहीँ छोड़ना चाहते। सुख के साथ दुख की छाया बनती रहेगी। दुख को केवल वो ही छोड़ सकता है जिसने सुख छोड़ा। फिर दुख का कोई उपाय न रहा। सुख के छूटते ही दुख छूट जाता है।
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स्वर्ग के ऊपर, हृदय की गुफा में, ब्रह्मलोक में.... इस हृदय की गुफा को ब्रह्मलोक भी कहा है.... स्थित वह परमतत्व आलोकित है, जिसे निष्ठावान साधक प्राप्त कर सकते हैँ। हृदय की गुफा को थोड़ा समझ लेँ, क्या प्रयोजन है? साधारणतः मनुष्य को हृदय का बोध नहीँ होता। वह गुप्त है इसीलिये उसे गुफा कहते हैँ। गुफा का अर्थ है कि उसके बाहर के रुप से परिचित हो पाता है मनुष्य, भीतर का पता नहीँ चलता। ऐसा समझे कि यदि किसी मकान की दीवारेँ तोड़ देँ तो क्या भीतर मकान मिलेगा? मकान दीवारें गिरते ही खो जाएगा।
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दीवारोँ के रहते ही मकान को खोजा जा सकता है। वैज्ञानिक ये ही भूल करता है। वह चीर-फाड़ करके दिखाता है, कोई हृदय नहीँ। ऐसे ही वह मस्तिष्क को काटकर बताता है कि यहां कोई मन नहीँ है। मन भीतरी अंतर-गुहा है। मस्तिष्क दीवाल है, मन भीतर का स्थान है। फेफड़ा बाहर की दीवार है, हृदय भीतर का स्थान है। काटकर तो दीवार हाथ आती है, भीतर का शून्य तो विराट शून्य में खो जाता है। बिना काटे प्रवेश करेँ तो हृदय मिलेगा। इसीलिये वैज्ञानिक हृदय को कभी नहीँ खोज सकता।
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केवल सिद्ध खोज पाता है, क्योँकि वह इस हृदय को तोड़ता नहीँ, दीवारोँ को नहीँ मिटाता और दीवारोँ ने जिस रिक्त स्थान को घेरा है, उसमें प्रवेश करता है। ध्यान उस किरण का नाम है जो इस अंतर-गुहा मे प्रवेश करती है। इस अंतर-गुहा को ब्रह्मलोक भी कहा है, क्योँकि इस अंतर-गुहा में प्रवेश के पश्चात जिस अनुभूति का अनुभव होता है, वह अनुभूति ही समस्त ब्रह्माण्ड के हृदय मेँ भी छिपी हुई है। स्वयं के हृदय में प्रवेश परम हृदय में प्रवेश का प्रथम चरण है।
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कला आ गई। समझ आ गई। हृदय उस विराट सागर का तट है, जहां बिना खतरे के तैरना सीखा जा सकता है। एक बार तैरना आ जाए तो मनुष्य कभी भूलता नहीँ एक बार ध्यान की किरण उपलब्ध हो जाए तो फिर उसे भूल जाने का कोई उपाय नहीँ है। मनुष्य फिर वो ही मनुष्य नहीँ रह सकता, जो वह इस ध्यान के अनुभव के पहले था। वह अनुभव मनुष्य की आत्मा बन जाएगा।

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