बुधवार, 3 जनवरी 2018

= सुमिरण का अंग २०(३७-४०) =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सिरजनहार के, केते नाम अनन्त ।*
*चित आवै सो लीजिये, यों साधु सुमरैं संत ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*सुमिरण का अंग २०*
ज्यों जोगी मृग सींग सौ, विप्र जनेऊ जाण । 
त्यों रज्जब राम ही गहो, तकि हरियल की बाण ॥३७॥ 
जैसे नाथ मृग के सींग को नहीं छोड़ता, ब्राह्माण जनेऊ नहीं छोड़ता, और हरियल पक्षी का स्वभाव देखो वह काष्ठ को नहीं छोड़ता, वैसे ही प्रतिक्षण राम का स्मरण करते रहना चाहिये । 
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तन मन ले सुमिरण करे, रोम रोम रट राम । 
यूं रज्जब जगदीश भज, सरे सु आतम राम ॥३८॥
तन को अनुचित व्यवहार से, मन को भोग-वासनाओं से ऊंचा उठाकर स्मरण करे, रोम रोम से राम नाम की रट लगाता रहे, इस प्रकार जगदीश्वर का भजन करने से ही जीवात्मा का मुक्ति कार्य सिद्ध होता है । 
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सुमिरण सुरति संभालना, अविगत याद आराध । 
भजन यही भूले न प्रभु, रज्जब निज मग लाव ॥३९॥ 
वृत्ति द्वारा नाम को संभालना ही स्मरण है, मन इन्द्रियों के अविषय राम को याद रखना ही आराधना है प्रभु को न भूलना ही भजन है । इस प्रकार साधन करने से ही निज स्वरूप प्राप्ति का ज्ञान रूप मार्ग प्राप्त होता है । 
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बंदे को यहु बन्दगी, साहिब करना याद । 
यह सेवा सुमिरण यही, यही जिकर फरियाद ॥४०॥ 
भक्त के लिये यही भक्ति कर्तव्य है कि -निरन्तर भगवान को याद रखना, यही सेवा है, यही स्मरण है और यही चर्चा है और यही पुकार है ।
(क्रमशः)

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