रविवार, 3 जून 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(६१-६४) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन हंसा मोती चुणै, कंकर दिया डार ।*
*सतगुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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शूर सती संसार में, अलग सलग१ दरसंत । 
त्यों रज्जब साधु शकति, नमो निरंतर मंत२ ॥६१॥ 
संसार में शूर वीर पुरुष और सती नारी अन्य साधारण नर-नारियों के विचारों से अलग रहते हुये भी सबके साथ१ समान ही दिखाई देते हैं, वैसे ही ज्ञानी संत सर्वसाधारण के समान माया में रहते हुये भी विचार द्वारा निरंतर अलग ही रहते हैं, उनके विचार रूप प्रयत्न२ को हम नमस्कार करते हैं । 
एक काम निष्काम ह्वै, सकल साधना येह ।
रज्जब सो सीझ्या१ सही, वह वन रहो कि गेह ॥६२॥ 
साधक को मुख्य एक ही काम है कि वह निष्काम बने, सभी साधनाओं का यही फल है । जो निष्काम हो जाता है, वह यथार्थ में सिद्धावस्था१ को प्राप्त ज्ञानी माना जाता है । ऐसे संत वन में रहो वा मायामय घर में वह तो मुक्त ही है । 
जड़ विहूण१ जल मंडली२, जीवे पाणी माँहिं । 
त्यों अतीत आशा रहित, पर आलम न्यारे नाँहिं ॥६३॥ 
जल के ऊपर छाई हुई काई२ जड़ बिना१ पानी में जीवित रहती है नष्ट नहीं होती, वैसे ही संत आशा रहित होते हैं फिर भी संसार में रहते हैं अलग नहीं होते, उन्हें सांसरिक राग नहीं बांध सकता । 
अमर बेलि जड़ बिन हरि, भरी डाल सो१ पान । 
त्यों रज्जब माया मुकत, संतत२ शक्ति सु आन३ ॥६४॥ 
अमर बेलि बिना जड़ ही हरी रहती है और वह१ वृक्ष की डालों तथा पत्तों में भरी रहती है, वैसे ही आशा रहित संत निरंतर२ माया में रहते हुये भी माया से अन्य३ ब्रह्म में प्रकार वृत्ति रखते हैं, इसी से माया से मुक्त रहते हैं । 
(क्रमशः)

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