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卐 सत्यराम सा 卐
*सुमिरण का शंसा रह्या, पछितावा मन मांहि ।*
*दादू मीठा राम रस, सगला पिया नांहि ॥*
*दादू जैसा नाम था, तैसा लीया नांहि ।*
*हौंस रही यहु जीव में, पछितावा मन मांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*करुणा को अंग ४४*
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रज्जब विनती पर वरं भू१, ब्रह्म करुणामय सु विरुद्द३ ।
पुकार सुन्यों प्रभु बाहरू२, पै मैं मुर४ थोकों रद्द५ ॥२९॥
परमात्मा का सुयश३ ऐसा फैला हुआ है कि - वे दयामय हैं अर्थात दीनों पर दया करने वाले हैं, विनय करने पर वर देने वाले१ हैं, आरत पुकार सुनकर सहायता२ करने वाले हैं किन्तु मैं तो दीनता, विनय और आरत पुकार, इन तीनों४ गुणरूप थोकों से रहित हूँ ।
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घर में पारस लोह था, परि लै१ लाया नाँहिं ।
मनसा वाचा कर्मना, चूक पड़ी मुझ माँहिं ॥३०॥
जैसे घर में लोह और पारस दोनों हो किन्तु लोह को स्पर्श कराये बिना वह सोना नहीं बनता, वैसे ही शरीर में जीवात्मा और ज्ञान दोनों हैं किन्तु अन्तर्मुखवृत्ति१ द्वारा जीवात्मा ज्ञान से स्पर्श नहीं करता अर्थात ज्ञान का विचार नहीं करता तब तक ब्रह्मरूप नहीं होता । वृत्ति द्वारा स्पर्श न कराना रूप भूल मन, वचन कर्म से मुझ में पड़ी ही रही इसे से ब्रह्म साक्षात्कार न हो सका ।
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निश्चय आया नाम का, परि नाम न आया ।
रज्जब रज तज काढ़तों, प्राणी पछिताय ॥३१॥
शास्त्र-संतों के उपदेश द्वारा नाम मोक्ष का साधन है यह निश्चय तो तो हृदय में आ गया किन्तु नाम का निरंतर स्मरण नहीं हो पाया, इस अवस्था में रजोगुण रूप विक्षेप को त्यागकर मन के दोषों से निकालते ही निर्दोष स्थिति की शांती अनुभव करके प्राणी पश्चाताप करता है कि मैनें पूर्व की आयु व्यर्थ ही विक्षेप में खो दी ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित करुणा का अंग ४४ समाप्त । सा. १४३९ ॥
(क्रमशः)
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