शनिवार, 23 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(५७/६०)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*ज्यों तुम भावै त्यों खुसी, हम राजी उस बात ।*
*दादू के दिल सिदक सौं, भावै दिन को रात ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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आँखिन सिदक१ निश्चय निर्संध२, 
अडिग अडोल३ अविहड़४ दृढ बंध । 
ठीक पतिव्रत अखंडित प्रिति, 
नाम अनन्त एक रस५ रीति ॥५७॥ 
ज्ञान नेत्रों से सत्य१ का निश्चय करके, सन्धि२ रहित, अडिग, अचंचल३ व्यापक४ ब्रह्म में अखंडित प्रीति द्वारा अच्छी प्रकार दृढ पतिव्रत बांधना चाहिये, उसके नाम तो अनन्त हैं किन्तु उनसे मिलने वाला आनन्द५ एक ही है । 
जिन बातों साहिब खुशी, रज्जब राजी होय । 
पतिव्रत सो जानिये, जाके एक न दोय ॥५८॥ 
जिन बातों से प्रभु प्रसन्न होता है, हम भी उन्हीं में राजी हैं, प्रतिव्रत उसी को समझना चाहिये, जिसके हृदय में एक ही रहे, दूसरा नहीं आवे । 
तन मन की मेटै खुशी, आतम आज्ञा माँहि । 
तो रज्जब रामहिं मिले, उर में और सु नाँहिं ॥५९॥ 
जो परमात्मा इन्द्रियरूप तन और मन की प्रसन्नता के हेतु विषय राग को मिटाकर प्रभु की आज्ञा में रहता है, उसके हृदय में दूसरा नहीं आता, अत: वह राम को ही प्राप्त होता है । 
संतति आभों शून्य की, तोयं१ तरुण२ विवेक । 
त्यों रज्जब रम रजा में, अपणी दोय न एक ॥६०॥ 
आकाश की संतान बादल जलयुक्त१ होना रूप युवावस्था२ को प्राप्त होने पर भी आकाश से अलग नहीं होते, वैसे ही पूर्ण विवेक होने पर भी अपनी दूसरी इच्छा न प्रकट करके एक प्रभु की आज्ञा में ही चलना चाहिये । 
(क्रमशः)

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