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*दादू सोच करै सो सूरमा, कर सोचै सो कूर ।*
*कर सोच्यां मुख श्याम ह्वै, सोच कियां मुख नूर ॥*
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साभार ~ @Jignesh Patel
🔴ओशो -
"जितना अंतः करण अशुद्ध होगा ___" आत्मा उतनी निर्बल होगी ! आत्मा की निर्बलता हमेशा अशुद्धि से आती है ! आत्मा की सबलता शुद्धि से आती है ! वह जितनी प्योरिफाइड, जितनी पवित्र हुई चेतना है, उतनी ही सबल हो जाती है। आत्मा के जगत में पवित्रता ही बल है और अपवित्रता निर्बलता है।
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इसलिए जब भी कोई अपवित्र काम आप करेंगे, तत्काल पाएंगे, आत्मा निर्बल हो गई। जरा चोरी करने का विचार करके सोचें। करना तो दूर, थोड़ा सोचें कि पड़ोस में रखी हुई आदमी की चीज उठा लें। अचानक भीतर पाएंगे कि कोई चीज निर्बल हो गई, कोई चीज नीचे गिर गई। सोचें भर कि चोरी कर लूं, और भीतर कोई चीज निर्बल हो गई। सोचें कि किसी को दान दे दूं, और भीतर कोई चीज सबल हो गई। सोचें मांगने की, और भीतर निर्बलता आ जाती है। सोचें देने की, और भीतर कोई सिर उठाकर खड़ा हो जाता है।
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जहां अशुद्धि है, वहां निर्बलता है। जहां शुद्धि है, वहां सबलता है। और निर्बल और सबल होने को आप अशुद्धि और शुद्धि का मापदंड समझें। जब मन भीतर निर्बल होने लगे, तो समझें कि आस-पास जरूर कोई अशुद्धि घटित हो रही है। और जब भीतर सबल मालूम पड़ें प्राण, तब समझें कि जरूर कोई शुद्धि की यात्रा पर आप निकल गए हैं। ये दोनों बंधी हुई चीजें हैं।
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इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण जिसका शुद्ध है ! अंतःकरण जिसका शुद्ध है…। यह अंतःकरण की शुद्धि और अशुद्धि को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
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अंतःकरण कब होता है अशुद्ध? जब भी–जब भी–हम किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, किसी भी सुख के लिए। किसी भी सुख के लिए जब भी हम किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, तभी अंतःकरण अशुद्ध हो जाता है। दूसरे पर निर्भरता अशुद्धि है। और दूसरे पर निर्भरताएं सभी बहुत गहरे अर्थ में पाप हैं। लेकिन हम कुछ पापों को सोशियलाइज किए हुए हैं, उनको हमने समाजीकृत किया हुआ है। इसलिए अंतःकरण को पता नहीं चलता।
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अगर एक आदमी सोचता है कि आज मैं वेश्या के घर जाऊं, तो मन निर्बल होता मालूम पड़ता है कि पाप कर रहा हूं। लेकिन सोचता है, अपनी पत्नी के पास जाऊं, तो मन निर्बल होता नहीं मालूम पड़ता है। पत्नी के पास जाते समय मन निर्बल मालूम नहीं पड़ता है, क्योंकि पत्नी और पति के संबंध को हमने समाजीकृत किया है, सोशियलाइज किया है। वेश्या के पास जाते वक्त निर्बलता मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाप सोशियलाइज नहीं है, इंडिविजुअल है। पूरा समाज उसमें सहयोगी नहीं है, आप अकेले जा रहे हैं।
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लेकिन जो आदमी गहरे में समझेगा, उसे समझ लेना चाहिए कि जिस क्षण भी मैं अपने सुख के लिए किसी के भी पास जाता हूं–चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह पति हो, चाहे वह मित्र हो, चाहे वह वेश्या हो–जब भी मैं किसी और के द्वार पर भिक्षा का पात्र लेकर खड़ा होता हूं, तभी आत्मा अशुद्ध हो जाती है। न दिखाई पड़ती हो, लंबी आदत से अंधापन पैदा हो जाता है। बहुत बार एक ही बात को दोहराने से, करने से, मजबूत यांत्रिक व्यवस्था हो जाती है।
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चोर भी रोज-रोज थोड़े ही अनुभव करता है कि आत्मा पाप में पड़ रही है। नियमित चोरी करने वाला धीरे-धीरे चोरी में इतना गहरा हो जाता है कि अंतःकरण की आवाज फिर सुनाई नहीं पड़ती है। फिर तो किसी दिन चोरी करने न जाए, तो लगता है कि कुछ गलती हो रही है !
गीता दर्शन ! ओशो.....♣

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