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*जब देव निरंजन पूजिये, तब सब आया उस मांहि ।*
*डाल पान फल फूल सब, दादू न्यारे नांहि ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
यह जो भीतर: 'मैं' का बोध है, अभी धुंधला—धुंधला है। जब प्रगाढ़ हो कर प्रगट हो जायेगा तो यही 'मैं' का बोध परमात्म—बोध बन जाता है। इसी धुंधले —से बोध को, धुएं में घिरे बोध को प्रगाढ़ करने के लिए श्रद्धा में जाना जरूरी है।
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श्रद्धा का अर्थ फिर से जान लें—विश्वास नहीं; जो है, उसको भरी आंख से देखना, खुली आंख से देखना। परमात्मा भीतर मौजूद है। कहां भटकते हैं? कहां खोजते है? कहीं खोजना नहीं है। कहीं जाना नहीं है। सिर्फ भरी आंख, भीतर जो मौजूद ही है, उसे देखना है। देखते ही द्वार खुल जाते हैं मंदिर के। साक्षी अनुभव में आता है—श्रद्धा के भाव से।
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साक्षी का अर्थ है : मन को लुटाने की कला, मन को मिटाने की कला।
कभी देखा, बाहर भी जब सौंदर्य की प्रतीति होती है तो तभी, जब थोड़ी देर को मन विश्राम में होता है ! आकाश में निकला है पूर्णिमा का चांद, देखा और क्षण भर को उस सौंदर्य के आघात में, उस सौंदर्य के प्रभाव में, उस सौंदर्य की तरंगों में शांत हो गये! एक क्षण को सही, मन न रहा।
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उसी क्षण एक अपूर्व सौंदर्य का, आनंद का उल्लास— भाव पैदा होता है। फूल को देखा, संगीत को सुना, या मित्र के पास हाथ में हाथ डाल कर बैठ गये—जहां भी सुख की थोड़ी झलक मिली हो, पक्का जान लेना, वह सुख की झलक इसीलिए मिलती है कि कहीं भी मन अगर ठिठक कर खड़ा हो गया, तो उसी क्षण साक्षी— भाव छा जाता है।
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वह इतना क्षणभंगुर होता है कि उसे पकड़ नहीं पाते—आया और गया।
ध्यान में उसी को गहराई से पकड़ने की चेष्टा करते हैं। वह जो सौंदर्य दे जाता है, प्रेम दे जाता है, सत्य की थोड़ी प्रतीतियां दे जाती हैं, जहां से थोड़े—से झरोखे खुलते हैं अनंत के प्रति—उसे ध्यान में और प्रगाढ़ हो कर पकड़ने की कोशिश करते हैं।
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और यही इस जगत में बड़े से बड़ा कृत्य है। ध्यान रहे कृत्य यह है नहीं। क्योंकि कर्ता इसमें नहीं है। लेकिन भाषा का उपयोग करना पड़ता है। यह जगत में सबसे बड़ा कृत्य है जो कि बिलकुल ही करने से नहीं होता—होने से होता है। माना कि बाग जो भी चाहे लगा सकता है, लेकिन वह फूल किसके उपवन में खिलता है? जिसके रंग तीनों लोकों की याद दिलाते हैं और जिसकी गंध पाने को देवता भी ललचाते हैं। वह है साक्षी का फूल।
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बगिया तो सभी लगा लेते हैं—कोई धन की, कोई पद की। बगिया तो सभी लगा लेते हैं। लेकिन वह फूल किसके बगीचे में खिलता है, जिसके लिए देवता भी ललचाते हैं? वह तो खिलता है, जब स्वयं खिलते हैं। वह निजत्व का फूल है—सहस्र—दल कमल, सहस्रार; भीतर छिपी हुई संभावना जब पूरी खिलती है, साक्षी में खिलती है। क्योंकि कोई बाधा नहीं रह जाती।
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जब तक कर्ता हैं, शक्ति बाहर नियोजित रहती है। विचारक हैं तो शक्ति मन में नियोजित रहती है। कर्ता हैं तो शरीर से बहती रहती है, विचारक हैं तो मन से बहती रहती है। ऐसे बूंद—बूंद रिक्त होते रहते हैं। कभी संग्रह नहीं कर पाते ऊर्जा को, बाल्टी में छेद हैं—सब बह जाता है।
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साक्षी का इतना ही अर्थ है कि न तो कर्ता रहे, न चिंतक रहे; थोड़ी देर को कर्ता, चिंता दोनों छोड़ दीं। कर्ता न रहे तो शरीर से अलग हो गये; चिंतक न रहे तो मन से अलग हो गये। इस शरीर और मन से अलग होते ही जीवन—ऊर्जा संगृहीत होने लगती है। गहन गहराई आती है। उस गहराई में जो जाना जाता, उसे ज्ञानी साक्षी कहते; भक्त परमात्मा कहते। वह शब्द का भेद है।
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