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*घट घट के उनहार सब, प्राण परस ह्वै जाइ ।*
*दादू एक अनेक ह्वै, बरतें नाना भाइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
यत्वं पश्यसि तत्र एक? त्वं एव प्रतिभाससे।
'जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है।’
फिर देखते हैं, पूर्णिमा की रात चांद निकला ! हजार—हजार प्रतिफलन बनते हैं। कहीं झील पर, कहीं सागर के खारे जल में, कहीं सरोवर में, कहीं नदी—नाले में, कहीं पानी—पोखर में, कहीं थाली में पानी भर कर रख दो तो उसमें भी प्रतिबिंब बनता है। पूर्णिमा का चांद एक, और प्रतिबिंब बनते हैं अनेक।
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लेकिन क्या ये कहेंगे, गंदे पानी में बना हुआ चांद का प्रतिबिंब और स्वच्छ पानी में बना चांद का प्रतिबिंब भिन्न—भिन्न हैं? क्या इसीलिए गंदे पानी में बने प्रतिबिंब को गंदा कहेंगे क्योंकि पानी गंदा है? क्या पानी की गंदगी से प्रतिबिंब भी गंदा हो सकता है? प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो सकता।
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रवींद्रनाथ ने एक स्मरण लिखा है। जब वे पहली—पहली बार पश्चिम से प्रसिद्ध हो कर लौटे, नोबल प्राइज ले कर लौटे, तो जगह—जगह उनके स्वागत हुए। लोगों ने बड़ा सम्मान किया। जब वे अपने घर आये तो उनके पड़ोस में एक आदमी था, वह उनको मिलने को आया। उस आदमी से वे पहले से ही कुछ बेचैन थे, कभी मिलने आया भी न था।
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लेकिन उस आदमी की आंख ही बेचैन करती थी। उस आदमी की आंख में कुछ तलवार जैसी धार थी कि सीधे हृदय में उतर जाये। वह आया और गौर से उनकी आंख में आंख डाल कर देखने लगा। वे तो तिलमिला गये। और उसने उनके कंधे पकड़ लिये और जोर से हिलाकर कहा, तुझे सच में ही ईश्वर का अनुभव हुआ है? क्योंकि गीतांजलि, जिस पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला, प्रभु के गीत हैं, उपनिषद जैसे वचन हैं। उस आदमी ने उनको तिलमिला दिया।
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कहा, सच में ही तुझे ईश्वर का दर्शन हुआ है? क्रोध भी उन्हें आया। वह अपमानजनक भी लगा। लेकिन उस आदमी की आंखों की धार कुछ ऐसी थी कि झूठ भी न बोल सके और वह आदमी हंसने लगा और उसकी हंसी और भी गहरे तक घाव कर गई। और वह आदमी कहने लगा, तुझे मुझमें ईश्वर दिखाई पड़ता है कि नहीं, यह और मुश्किल बात थी। उसमें तो कतई नहीं दिखाई पड़ता था, और सब में दिखाई पड़ भी जाता। जो फूलमालायें ले कर आये थे, जिन्होंने स्वागत किया था, सम्मान में गीत गाये थे, नाटक खेले थे, नृत्य किये थे—उनमें शायद दिख भी जाता। वे बड़े प्रीतिकर दर्पण थे। यह आदमी ! वह आदमी खिलखिलाता, उन्हें छोड़कर लौट भी गया।
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रवींद्रनाथ ने लिखा है, उस रात मैं सो न सका। मुझे मेरे ही गाये गये गीत झूठे मालूम पड़ने लगे। रात सपने में भी उसकी आंख मुझे छेदती रही। वह मुझे घेरे रहा। दूसरे दिन सुबह जल्दी ही उठ आया। आकाश में बादल घिरे थे, रात वर्षा भी हुई थी। जगह—जगह सड़क के किनारे डबरे भर गये थे। मैं समुद्र की तरफ गया—मन बहलाने को। लौटता था, तब सूरज उगने लगा। विराट सागर पर उगते सूरज को देखा।
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फिर राह पर जब घर वापिस आने लगा तो राह के किनारे गंदे डबरों में, जिनमें भैंसें लोट रही थीं, लोगों ने जिनके आस—पास मलमूत्र किया था, वहां भी सूरज के प्रतिबिंब को देखा। अचानक आंख खुल गई। मैं ठिठक कर खड़ा हो गया कि क्या इन गंदे डबरों में जो प्रतिबिंब बन रहा है सूरज का, वह गंदा हो गया? विराट सागर में जो बन रहा है, क्या विराट हो गया? क्षुद्र डबरे में जो बन रहा है, क्या क्षुद्र हो गया? प्रतिबिंब तो एक के हैं।
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