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*दादू तीन शून्य आकार की, चौथी निर्गुण नाम ।*
*सहज शून्य में रमि रह्या, जहाँ तहाँ सब ठाम ॥*
*काया शून्य पंच का बासा, आत्म शून्य प्राण प्रकासा ।*
*परम शून्य ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला ॥*
*पाँच तत्त्व के पांच हैं, आठ तत्त्व के आठ ।*
*आठ तत्त्व का एक है, तहाँ निरंजन हाट ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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घट घड़ियाल रु झालर मुरगे, शंख शब्द सहनाय ।
षट् बाजे षट् दर्शन हु, पति प्रभात बताय ॥७७॥
घट, घड़ियाल, झालर, शंख, शहनाई इन बाजों की ध्वनी और मुरगे का शब्द ये ६ प्रात:काल को बताते हैं, वैसे ही नाथ, जंगम, सेवड़े , बौद्ध, सन्यासी, शेष ये ६ भेषधारी वा पूर्व मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य, वेदांत ये ६ दर्शन शास्त्र परमात्मा को बताते हैं ।
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पैड़ी पंच तीन पर पैड़ी, सप्तै अष्ट सिवान१ ।
रज्जब चढै सु कौटि में, ऊंचा अगम दिवान२ ॥७८॥
परमात्मा का स्वरूप मय दरबार मन इन्द्रियों का अविषय होने से अगम और मायिक प्रपंच से श्रेष्ठ होने से ऊंचा है उसमें जाने के लिये
(१)अन्नमय,
(२)प्राणामय,
(३)मनोमय,
(४)ज्ञानमय,
(५)आनन्दमय, इन पंच कोश रूप पांच पैड़ी और
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(१)तमोगुण,
(२)रजोगुण,
(३)सतोगुण इन तीन गुण रूप तीन पैड़ियों से ऊपर जाना होता है । और
=
(१)शुभेच्छा,
(२)सुविचारण,
(३)तनुमानसा,
(४)सत्त्वापति,
(५)असंसक्ति,
(६)पदार्थाभावनी,
(७)तुरीयगा इन सात भूमिकाओं को पार करना होता है ।
अष्टम स्थिति उसके प्राप्ति के मार्ग का सीमान्त१ है वा
=
(१)यम,
(२)नियम,
(३)आसन,
(४)प्राणायाम,
(५)प्रत्याहार,
(६)धारण,
(७)ध्यान,
(८)सविकल्प समाधि उसके प्राप्ति - मार्ग का सीमान्त१ हैं ।
कोटि साधकों में कोई बिरला ही उक्त सबसे ऊपर चढकर परब्रह्म के स्वरूपमय दरबार२ में जाता है ।
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जन रज्जबों पंचों ध्वजा, चढ सुमेरु शिर बंध ।
सिद्ध साधक देखै सभी, को साधू आया रंध्र१ ॥७९॥
ज्ञानेन्द्रिय रूप पंचध्वजा माया रूप सुमेरु के शिर पर जा बंधती हैं अर्थात इन्द्रियाँ प्रभु परायण हो जाती हैं तब सिद्ध संत तथा साधक संत सभी देखते हैं कि कोई संत ज्ञान प्रकाश रूप छिद्र१ के द्वारा प्रभु के पास आया है ।
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तन मन ऊपर अमल१ कर, वैरी पंच भजाय ।
रज्जब शक्ति२ सुमेरु शिर, नाम निसान३ बजाय ॥८०॥
अपने शरीर और मन पर अधिकार१ कर, १काम, २क्रोध, ३लोभ, ४मोह, ५दंभ रूप पंच शत्रुओं को हृदय से भगा और माया२ रूप सुमेरु के शिर पर चढकर अर्थात माया को त्याग कर, नाम रूप नगाड़ा३ बजा अर्थात नाम का जप कर ।
(क्रमशः)
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