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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*भक्ति निराली रह गई, हम भूल पड़े वन माहिं ।*
*भक्ति निरंजन राम की, दादू पावै नांहिं ॥*
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*विलक्षण सन्त, विलक्षण वाणी - परमश्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
(संकलन तथा सम्पादन - राजेन्द्र कुमार धवन)
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*भाग - ६*
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तात्पर्य है कि जिनका मन सुखभोग में तथा धनादि पदार्थों का सग्रह करने में ही लगा हुआ है, वे 'मेरे को परमात्मा का ही दर्शन करना है, परमात्मा को ही प्राप्त करना है' - ऐसा दृढ़ निश्चय भी नहीं कर सकते । उन पैसों के मोह में आकर आप झूठ, कपट, बेईमानी, छल, अभक्ष्य भक्षण, ब्लैक मार्किट, इन्कमटैक्स की चोरी, सेल्सटैक्स की चोरी आदि कितने-कितने अनर्थ करते हो । *यह मैं आप पर दोषारोपण करने के लिये नहीं कह रहा हूँ प्रत्युत आप निर्दोष हो जायें इस भाव से कहता हूँ । मैं सरलता से आपलोगों के सामने प्रार्थना करता हूँ, विनती करता हूँ । मैं गुरु बनकर उपदेश नहीं देता हूँ, प्रत्युत सलाह देता हूँ । आप मानेंगे तो बड़ी कृपा होगी ।*
एक विधिवाक्य होता है, एक निषेधवाक्य होता है । ऐसा करो, जप करो, ध्यान करो, दान करो, तीर्थ करो, व्रत करो - यह विधिवाक्य है । ऐसा मत करो - यह निषेधवाक्य है । *विधि-वाक्य नहीं मानेंगे तो हम उससे होने वाले लाभ से वंचित रह जायँगे । परन्तु निषेधवाक्य नहीं मानेंगे तो हमें दण्ड होगा । इसलिये माता, पिता, गुरु आदि जिस बातका निषेध करें, उसको नहीं करना चाहिये । इस विषय में मैंने अध्ययन किया है, एकान्त में बैठकर विचार किया है, खोज की है कि निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग कर दें तो कल्याण हो जायगा ।*
*साधन करते हुए भी अपनी अवस्था ऊँची नहीं दीखती - इसके मुख्य कारणों में एक मुख्य कारण यह भी है कि निषिद्ध आचरणों का त्याग नहीं करते ।* विहित और निषिद्ध दोनों आचरण करते हैं । ये दोनों आचरण किसके द्वारा नहीं होते? अर्थात् सब के द्वारा होते हैं ।
कसाई सें कसाई, डाकू सें डाकू भी विहित आचरण न करे - ऐसी बात नहीं है । कसाई के हृदय में भी दया होती है । वह अपने बाल बच्चों की हत्या नहीं करता, प्रत्युत उनका पालन करता है । तात्पर्य है कि दुर्गुण-दुराचारों का तो सर्वथा त्याग हो सकता है, पर सद्गुण-सदाचारों का सर्वथा त्याग हो ही नहीं सकता । *सद्गुण-सदाचारों से उतना लाभ नहीं होगा, जितना दुर्गुण-दुराचारों के त्यागसे होगा । पापों के, अपराध के, अन्याय के त्याग में बड़ा भारी बल है ।*
तन कर मन कर वचन कर, देत न काहू दुक्स ।
तुलसी पातक हरत है, देखत उसको मुक्ल ॥
*जो तन से, मन से, वचन से, धन से, विद्या से, बुद्धि से, अधिकार से, योग्यता से दूसरे को दुःख नहीं देता, वह इतना पवित्र हो जाता है कि उसका दर्शन करने से पाप दूर हो जाते हैं ।* यह बात जल्दी समझ में नहीं आती । बहुत से भाई बहनों ने समझ रखा है कि भजन-ध्यान करने से बड़ा लाभ होता है, और यह सच्ची बात है, मैं झूठ नहीं कहता हूँ । परन्तु पापों से, अन्याय से, दूसरों के मन के विरुद्ध आचरण करने से जो पाप लगता है, उससे छुटकारा नहीं होता । इसलिये ऐसा करने वाले ऊँची स्थिति का प्रत्यक्ष में अनुभव न कर सकते हैं, न करेंगे ।
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