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*सोई शूर जे मन गहै, निमख न चलने देइ ।*
*जब ही दादू पग भरै, तब ही पकड़ि लेइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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जिहिं जायगह१ सौं मन उदय, तहाँ अस्त करि बंध ।
रज्जब रहिये राम सौं, मन उनमनि२ लै३ संध४ ॥९७॥
जिस नाभि स्थान१ से मन उदय होता है, वहाँ ही छिपाकर बंध करो, फिर उस निग्रह किये हुये मन को लय योग३ द्वारा समाधि२ में ले जाकर राम के स्वरूप से जोड़४ दो ।
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जैसे छाया कूप की, फिरि धिरि निकसै नाँहिं ।
जन रज्जब यूँ राखिये, मन मनसा१ हरि माँहिं ॥९८॥
जैसे कूप की छाया इधर उधर फिर कर भी बाहर नहीं निकलती, वैसे ही मन बुद्धि१ को हरि के स्वरूप में रक्खो बाहर मत जाने दो ।
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रज्जब सब गुण सीखिया, जे मन राख्या ठौर३ ।
मन वच कर्म सीझ्या१ सही२, जे उर उठे न और ॥९९॥
यदि मन को ठिकाने३ रख दिया तो सभी कुछ सुन लिया तथा सीख लिया, यदि हृदय में प्रभु को छोड़कर अन्य भावना नहीं उठती तो मन, वचन, कर्म से सिद्ध१ हो गया, यह बात यथार्थ२ ही है ।
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मनसा चकमक चिनग ज्यों, उठत बुझावै सु:ख ।
जन रज्जब प्रकट्यों पछै, बहुत दिखावै दु:ख ॥१००॥
कामना चकमक से उत्पन्न अग्नि की चिंगारी के समान थोड़ी सी उठती है, अग्नि को उठते ही बुझा दे और कामना को भी उठते ही मिटा दे तब तो सु:ख रहता है, प्रकट होकर बढ़ जाने के पिछे तो जैसे चकमक की अग्नि घरादि को जलाकर दु:ख देती है, वैसे ही कामना भी बहुत दु:ख देती है ।
(क्रमशः)
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