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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१८ - विरह विलाप विनती । तृतीय ताल
तो लग१ जनि मारे तूँ मोहि,
जो लग मैं देखूँ नहिं तोहि ॥टेक॥
अब के विछुरे मिलन कैसे होइ,
इहि विधि बहुरि न छीन्हे कोइ ॥१॥
दीन दयाल दया कर जोइ,
सब सुख आनँद तुम तैं होइ ॥२॥
जन्म - जन्म के बन्धन खोइ,
देखन दादू अहनिश रोइ॥३॥
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भक्त वत्सलता का निश्चय करके विरह दुख निवारणार्थ विलाप युक्त विनय कर रहे हैं - प्रभो ! तब तक आप मेरे प्राण पिंड का वियोग मत१ करना, जब तक मैं आपके दर्शन न कर लूँ ।
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इस मानव देह में आकर भी आप से न मिल सका तब अन्य शरीरों में तो इस शरीर के समान मेरे मन, बुद्धि आदि कोई भी आपको न पहचान सकेंगे, फिर उनमें मिलना कैसे होगा ?
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हे आनँद - स्वरूप ! आपके मिलने से ही जन्म जन्मान्तरों के कर्म - बन्धन नष्ट होकर, मुझे सब प्रकार से सुख होगा ।
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मैं वियोगी आप के दर्शनार्थ दिन - रात रो रहा हूं; अत: हे दीनदयालो ! दया करके मेरी ओर देखिये ।
(क्रमशः)
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