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*बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशै देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥*
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साभार ~ अजय साक्षी रहो
ओशो...
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यह आदमी की कमजोरी क्या है? इस पर ही आज सुबह मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं। और आदमी की जो कमजोरी है वही परमात्मा के मार्ग पर रुकावट है। और आदमी की जो कमजोरी है वही उसके जीवन में प्रकाश आने में बाधा है। और आदमी की जो कमजोरी है वही दीवाल है जो द्वार को नहीं खुलने देती और जीवन दुख और पीड़ा से भर जाता है, अंधकार से भर जाता है।
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क्या है आदमी की कमजोरी? यह क्या है ह्यूमन वीकनेस?
अहंकार आदमी की कमजोरी है। दंभ, ईगो आदमी की कमजोरी है। मैं कुछ हूं, यह आदमी की कमजोरी है।
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और जब तक कोई इस कमजोरी से घिरा है, तब तक वह किन्हीं मंदिरों की तलाश करे और किन्हीं शास्त्रों को पढ़े और कैसी ही पूजाएं करे और कैसे ही त्याग और उपवास करे, संन्यासी हो जाए और जंगलों में चला जाए, कोई फर्क न पड़ेगा, बल्कि यह कमजोरी इतनी अदभुत है कि वे सब चीजें भी इसी कमजोरी को और मजबूत करने में कारण बन जाएंगी।
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एक आदमी के पास लाखों रुपये हों, वह उनका त्याग कर दे, तो हम कहेंगे, यह परमात्मा के रास्ते पर चला गया। लेकिन इतनी आसान बात नहीं है परमात्मा के रास्ते पर जाना। रुपयों से परमात्मा को खरीदना आसान नहीं है कि कोई रुपये छोड़ दे और परमात्मा को खरीद ले।
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बल्कि यह भी हो सकता है और यही होता है कि वह आदमी रुपये छोड़ कर भी उसी कमजोरी से भरा रह जाएगा जो कमजोरी रुपयों के होते हुए थी।
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एक संन्यासी ने मुझसे कहा, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। एक बार कहा, दो बार कहा, तीन बार कहा। मेहमान था मैं उनके आश्रम में। फिर चलते वक्त मैंने उनसे पूछा, यह लात आपने कब मारी थी?
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उन्होंने कहा, कोई तीस वर्ष हुए। मैंने उनसे कहा, अगर बुरा न माने तो मैं निवेदन कर दूं, लात ठीक से लग नहीं पाई, अन्यथा तीस वर्षों के बाद भी उसकी याद कैसे हो सकती थी?
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लाखों रुपये आपके पास रहे होंगे तब यह अहंकार रहा होगा कि मेरे पास लाखों रुपये हैं, मैं कुछ हूं, उस समबडी होने का खयाल रहा होगा। फिर लाखों रुपये छोड़ दिए, तब से यह खयाल है कि मैंने लाखों रुपये छोड़े हैं, मैं कुछ हूं। मैंने लाखों रुपये छोड़े हैं!
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वह जो अहंकार लाखों रुपये के होने से भरता था वह अहंकार अब लाखों रुपये के छोड़ने से भी भर रहा है। कमजोरी वहीं की वहीं है। बात वहीं अटकी है उसमें कोई फर्क नहीं आया।
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धन वाले का अहंकार होता है, धन छोड़ने वाले का अहंकार होता है। अच्छे वस्त्र पहनने वाले का अहंकार होता है, सादे वस्त्र पहनने वाले का अहंकार होता है। बड़े मकान बनाने वाले का अहंकार होता है, झोपड़ियों में रहने वाले का अहंकार होता है। अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं। वह न मालूम किन-किन रूपों से अपनी तृप्ति कर लेता है। न मालूम किन-किन रूपों से यह खयाल पैदा हो जाता है मैं कुछ हूं।
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एक आदमी सारे वस्त्र छोड़ कर नग्न खड़ा हो जाए उसका अहंकार होता है कि मैं कुछ हूं। तुम, तुम जो कपड़े पहने हुए हो तुम क्या हो, ना-कुछ, मैं हूं कुछ, जिसने सब वस्त्र भी छोड़ दिए और नग्न हो गया हूं।
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इसीलिए तो संन्यासियों के अहंकार को छूना गृहस्थियों के हाथ की बात नहीं। त्याग करने वाले का अहंकार इसलिए बड़ा हो जाता है कि भोग तो छीना जा सकता है त्याग छीना भी नहीं जा सकता।
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मेरे पास कपड़े हैं और उनका अहंकार है, तो कपड़े तो छीने भी जा सकते हैं लेकिन अगर मैं नंगा खड़ा हो गया, तो मेरी नग्नता कैसे छीनी जा सकती है। वह संपत्ति ऐसी है जिसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता।
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अगर मेरे पास करोड़ों रुपये हैं तो कल नष्ट भी हो सकते हैं, खो भी सकते हैं, चोरी भी जा सकते हैं, मेरा अहंकार टूट भी सकता है, लेकिन अगर मैंने लाखों रुपये छोड़ दिए, तो मैंने छोड़ दिए हैं लाखों रुपये, इससे छूटने का अब कोई उपाय नहीं है, इससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।
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यह अहंकार, यह मैं कुछ हूं, सबसे बड़ी भ्रांति है जो मनुष्य को पकड़ लेती है। कोई कारण नहीं है इस भ्रांति के पकड़ लेने का। कोई बुनियाद नहीं है। यह अहंकार का भवन बिलकुल बेबुनियाद है, इसका कोई आधार नहीं है, इसकी कोई नींव नहीं है, यह मकान बिलकुल ताश के पत्तों का है। लेकिन जैसे ताश के पत्तों का महल बनाने में एक सुख मालूम होता है, वैसे ही इस अहंकार को खड़े होने में भी एक सुख मालूम होता है।
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क्यों मनुष्य अपने अहंकार को खड़ा करना चाहता है? कौन से कारण हैं उसके अहंकार को खड़ा करने के? पहला कारण तो यह है कि कोई भी मनुष्य यह नहीं जानता कि वह कौन है? यह बात इतनी घबड़ाने वाली है, यह अज्ञान इतना पीड़ा देने वाला है, इतनी एंज़ायटी पैदा करने वाला है कि मुझे पता भी नहीं कि मैं कौन हूं?
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इस अज्ञान को ढांकने के लिए मैं कोई उपाय कर लेता हूं, कहने लगता हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं, मैं धनपति हूं, मैं त्यागी हूं, मैं ज्ञानी हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं। जरूरी है, यह इतनी घबड़ाने वाली बात है कि मैं अपने को नहीं जानता। यह इतनी ज्यादा ह्यूमिलिएटिंग है, यह इतनी ज्यादा अपमानजनक है कि मैं अपने को नहीं जानता।
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तो मैं किसी भांति अपना एक रूप खड़ा कर लेता हूं, कहने लगता हूं, मैं यह हूं, कौन कहता है कि मैं अपने को नहीं जानता? इस भांति एक सेल्फ डिसेप्शन, एक आत्मवंचना देकर हम अपनी तृप्ति खोज लेते हैं कि मैं कुछ हूं।
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लेकिन क्या इस भांति हम अपने को जान पाते हैं? क्या आप जानते हैं कि आप कौन हैं? क्या आपको पता है कि क्या है वह जो आपके भीतर जीवंत है? वह जो लीविंग कांशसनेस है, वह जो चेतना है आपके भीतर, जो जीवन है वह क्या है?
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कुछ पता है उसका? झूठी बातें न दोहरा लें अपने मन में कि मैं आत्मा हूं। किताब में पढ़ लिया होगा इससे कुछ पता नहीं होता है। यह मत कह लें अपने मन में कि मैं ईश्वर का अंश हूं। पढ़ लिया होगा कहीं इससे काई फर्क नहीं पड़ता है।
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सचाई यह है कि पता नहीं भीतर क्या है? तथ्य यह है कि नहीं मालूम कौन भीतर बैठा है? और उस व्यक्ति को जिसे यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं, क्या उसके जीवन में सत्य का कोई अवतरण हो सकता है? जिसे यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं वह भी अगर ईश्वर की खोज में निकल पड़े तो पागल है।
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अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-06
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