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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*सहज सुंन्नि का षेला अभि अन्तरि मेला ।*
*अबिगति नाथ निरंजना तहां आपै आप अकेला ॥(टेक)*
*यह मन तहां बिलमाइये गहि ज्ञान गुरु का चेला ।*
*काल करम लागै नहीं तहां रहिये सदा सुहेला ॥१॥*
*परम जोति जहां जगमगै अरु शब्द अनाहद मेला ।*
*संत सकल पहुंचै तहां जन सुन्दर वाही गैला ॥२॥*
यह सहज साधना ‘शून्य से प्रेम’ का खेल है । यह अन्त:करण के मेल से ही सम्पन्न हो सकती है । वहाँ उपास्य के रूप में वह अज्ञेय निरञ्जन निराकार ब्रह्म ही एकान्ततः ग्राह्य है ॥टेक॥
शिष्य को अपना चित्त गुरुपदेश द्वारा प्राप्त ज्ञान में लगाना चाहिये । उसका परिणाम यह होगा कि ऐसे साधक को उसके कर्मफल एवं मृत्यु का कोई भय न रहेगा । वह सदा सुखी भी रहेगा ॥१॥
ऐसे साधक के चारों ओर परम ज्योति परमेश्वर का अनुपम प्रकाश जगमगाता रहेगा, तथा अनाहत नाद भी सुनायी देता रहेगा । महात्मा सुन्दरदासजी कहते हैं – सभी उत्तम साधक सन्त भी इसी उपाय से साधना करते हुए वहाँ तक पहुँच सके हैं । अतः यही उत्तम एवं सुखद मार्ग है ॥२॥
(क्रमशः)
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