शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*काया मांही भय घणा, सब गुण व्यापैं आइ ।*
*दादू निर्भय घर किया, रहे नूर में जाइ ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

मनुष्य विशिष्टता खोज रहा है। कोई विशिष्टता खोजता है धन के द्वारा कि मेरे पास करोड़ों रुपये हैं तो विशिष्ट हो जाता है—स्वभावत:। क्योंकि करोड़ों रुपये बहुत लोगों के पास नहीं हैं, कुछ लोगों के पास हैं। आकांक्षा होती है धनी की कि वह इतना धनी हो जाये कि आखिरी हो जाये, उसके ऊपर कोई न रहे।
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एण्ड्रू कारनेगी की आत्मकथा है, वह अमरीका का सबसे बड़ा धनपति आदमी था। वह अपने सेक्रेटरी से एक दिन पूछता है कि मैं बार—बार सुनता हूं कि यह निजाम का हैदराबाद दुनिया में सबसे बड़ा धनी है, इससे मुझे चोट लगती है। तुम पता लगाओ, इसके पास है कितना?
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अब यह जरा मुश्किल बात थी। क्योंकि निजाम हैदराबाद के पास धन तो नहीं था, हीरे—जवाहरात थे; उनका कोई हिसाब—किताब नहीं कि वे कितने के हैं। एण्ड्रू कारनेगी कहता है, जरा पता लगाओ कि कितना है इसके पास तो मैं इसे भी हरा कर बता दूं। मगर कुछ पता तो चले कि है कितना ! बस यह कोरी बात चलती है कि सबसे ज्यादा है।
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दस अरब रुपया छोड़ कर मरा एण्ड्रू कारनेगी, लेकिन फिर भी उसके मन में एक जरा—सी खटक रह गई थी कि निजाम हैदराबाद, पता नहीं इसके पास ज्यादा हो ! आदमी धन की चेष्टा करता है ताकि विशिष्ट हो जाये। कोई पद की चेष्टा करता है कि राष्ट्रपति हो जाऊं, प्रधानमंत्री हो जाऊं, तो विशिष्ट हो जाऊं। साठ करोड़ के देश में राष्ट्रपति एक ही होगा तो विशिष्ट हो जाता है।
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कोई ज्ञान इकट्ठा करता है और विशिष्ट हो जाता है। कोई नोबल प्राइज पा लेता है और विशिष्ट हो जाता है। इतना तो कर ही सकते हैं न कि किसी पहाड़ पर जा कर आंख बंद करके बैठ जाएं, पद्मासन लगा लें। इतना तो कर ही सकते हैं, तो भी विशिष्ट हो जाते हैं। और कभी—कभी तो ऐसा होता है, मजेदार है यह दुनिया, राष्ट्रपति चरण छूने आ सकते हैं,और एण्ड्रू कारनेगी प्रशंसा कर सकते हैं।
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साक्षी होने में भी कहीं विशिष्ट होने का ही भाव न बना रहे। इसलिए आखिरी है : लौट आओ। साक्षी तक जाओ, फिर तो कोई डर न रहा लौटने का। अब तो जान लिया कि निष्कलुषता परम है, उसमें कलुष हो ही नहीं सकता। अब तो जान लिया कि पवित्रता आत्यंतिक है, पापी हो ही नहीं सकते। अब तो जान लिया कि किसी कालकोठरी से भी गुजरो तो भी कालिख लग नहीं सकती। अब तो जानते हैं; अब तो देख लिया भीतर का खुला निरभ्र आकाश; अब तो परम से पहचान कर ली; अब तो स्वास्थ्य के दर्शन हो गये, स्वयं के दर्शन हो गये; अब क्या भय है?
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अगर रुके हैं अभी भी तो शक है कि अभी भी भय है और अभी भी स्वभाव को पूरा नहीं देखा। अभी भी कहीं कुछ डर किसी कोने —कातर में बैठा है जो कहता है, जाना मत वहां, कहीं उलझ न जाओ, कहीं फिर जंजाल में,संसार में न पड़ जाओ। परम ज्ञानी वही है,जिसका यह भी भय चला गया। अब जब लौट आता है जगत में वह सरल हो जाता है, सहज हो जाता है।

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