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*आज्ञा मांहैं बैसै ऊठै, आज्ञा आवै जाइ ।*
*आज्ञा मांहैं लेवै देवै, आज्ञा पहरै खाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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गुरु गोविन्द रु साधु की, होय चरण रज रैन१ ।
मन वच कर्म कारज सरैं२, सुन रज्जब निज बैन ॥१४५॥
अरे ! हमारे निजी वचन सुन ! यदि प्राणी मन, वचन, कर्म से गुरु, गोविन्द और संतों की चरण रज का कण१ होकर रहे तो उसके सभी कार्य सिद्ध२ हो जाते हैं ।
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रज्जब रज हो तो संत की, जा मुख निकसै राम ।
साधू सेती मिल रहो, तो सरसीं सब काम ॥१४६॥
जिसके मुख से निरंतर राम का नाम उच्चारण होता है, उस संत के चरणों की रज हो, संतों के विचारों से मिलकर रहोगे तो सभी कार्य सिद्ध हो जाँयेंगे ।
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रज्जब रहिये रजा में, साधु शब्द शिर धार ।
मन वच कर्म कारज सरैं, कदै न आवै हार ॥१४७॥
संतों की आज्ञा में रहो, उनके शब्दों को मन, वचन कर्म से स्वीकार करोगे तो तुम्हारे सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे, और कभी भी कार्य की अपूर्णता रूप हार का अवसर नहीं आयगा ।
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दास दमामे१ देव२ के, वाणी बंब३ सु होय ।
रज्जब बाजै४ हरि हुकम, भूल पड़ो मत कोय ॥१४८॥
भक्त - संत ब्रह्म२ के नगाड़े १ हैं, उनकी वाणी ही नगाड़े की ध्वनि३ है, ये हरि की आज्ञा से ही बजते४ हैं अर्थात बोलते हैं । अत: इनके उपदेश को छोड़कर भूल से कोई भी कुमार्ग में मत पड़ो ।
(क्रमशः)
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