गुरुवार, 5 सितंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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३७ - एकताल
मन मूरखा तैं क्या कीया, 
कुछ पीव कारण वैराग ना लीया ।
रे तैं जप तप साधी क्या दीया ॥टेक॥
रे तैं करवत काशी कद सह्या, 
रे तू गँगा माँहीं ना बह्या ।
रे तैं विरहनि ज्यों दुख ना सह्या ॥१॥
रे तूँ पाले पर्वत ना गल्या, 
रे तैं आप ही आपा ना दह्या ।
रे तैं पीव पुकारी कद कह्या ॥२॥
होइ प्यासे हरि जल ना पिया, 
रे तूँ वज्र न फाटो रे हिया ।
धिक् जीवन दादू ये जिया ॥३॥
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हे मूर्ख मन ! तूने प्रभु प्राप्ति के लिए कुछ भी वैराग्य धारण नहीं किया, यह क्या प्रमाद किया है ? अरे ! तूने प्रभु के लिए जप, तप, योग - साधन और दान किया है क्या ? 
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तूने काशी - करवत लेने का कष्ट कब सहा है और न गँगा में ही बहा है । न तूने वियोगिनी के समान प्रभु - प्राप्ति के लिए दु:ख सहा है ? 
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न तू हिमालय पर्वत के हिम में गला है । न तूने अपना अहँकार जलाया है । तूने व्यथित होकर प्रभु को कब पुकारा है कि "प्रभो ! दर्शन दो !" । 
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तीव्र प्यास - युक्त होकर हरि - भक्ति रूप जल भी नहीं पान किया । अरे हृदय ! इतना होने पर भी तू फटा नहीं, तो अवश्य ही वजर का है । हे मन ! प्रभु प्राप्ति के साधन से रहित ये जीवन के दिन धिक्कार के योग्य ही हैं ।
(क्रमशः)

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