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*बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशै देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ काल का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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जन रज्जब स्वप्ना जगत, सूता देखै सत्त१ ।
जाग्यूं मिथ्या भूत२ सब, नींद सु न्यारी मत्त३ ॥१७७॥
जगत् स्वप्न है, जब तक मोह निन्द्रा में सूता है, तब तक इसे सत्य१ देखता है, ब्रह्म ज्ञान३ से मोह निन्द्रा अलग होकर जगने पर सब मिथ्या रूप२ ही भासेगा ।
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रज्जब शीशे का सलिल, तैसा यहु संसार ।
स्वर्ग नरक फिरता रहै, युग युग बारंबार ॥१७८॥
जैसे दर्पण का पानी प्रतीति मात्र होता है, वैसे ही यह संसार है । जैसे दर्पण के पानी में आकृति ऊँची-नीची होती दीखती है, वैसे ही प्राणी प्रति युग में संसार के स्वर्ग नरकादि में फिरता है ।
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ब्रह्म विछोह१ वियोग न उपजै, मींच न आवे याद ।
रज्जब रीता प्राण सो, जन्म गमाया बाद ॥१७९॥
ब्रह्म का वियोग१ अनुभव में आने पर भी वियोग-व्यथा नहीं उत्पन्न हो, मृत्यु याद न आवे तो वह प्राणी कल्याण का साधन से खाली ही रहा और मानव जन्म व्यर्थ ही खो दिया ।
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मिथ्या तन मन वाणी प्राणी, रज्जब भजै न राम ।
सौंज१ शिरोमणी मिनखा देही, बाद२ गमी वे काम ॥१८०॥
हे प्राणी ! यह सुन्दर शरीर, मन और मधुर वाणी मिथ्या है, राम का भजन क्यों नहीं करता ? राम की प्राप्ति के लिये मनुष्य देह रूप सामग्री१ सर्व शिरोमणी मानी गई है, वह व्यर्थ२ बिना काम खोई जा रही है सावधान हो ।
(क्रमशः)
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