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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४७ - विश्वास । नटताल
साहिबजी सत मेरा रे,
लोग झखैं बहुतेरा रे ॥टेक॥
जीव जन्म जब पाया रे,
मस्तक लेख लिखाया रे ॥१॥
घटै बधै कुछ नाँहीं रे,
कर्म लिख्या उस माँहीं रे ॥२॥
विधाता विधि कीन्हा रे,
सिरज सबन को दीन्हा रे ॥३॥
समर्थ सिरजनहारा रे,
सो तेरे निकट गंवारा रे ॥४॥
सकल लोक फिर आवै रे,
तो दादू दीया पावै रे ॥५॥
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४७ - ४८ में अपना भगवद् विश्वास दिखा रहे हैं -
लोग तो अपने धन, जन, बल का आश्रय लेकर बहुत प्रकार बकवाद करते हैं किन्तु हमारा आश्रय तो एक सत्य स्वरूप परमात्मा ही है । हमें तो उसी का विश्वास है ।
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जीव ने जन्म लिया है, तब ही इसका प्रारब्ध निश्चित कर दिया गया है ।
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उस निर्धारित कर्म में कुछ भी घटता बढ़ता नहीं ।
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जिस विधाता ने शरीर उत्पन्न करके सबको कर्मानुसार आजीविका दी है, हे मूर्ख !
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वह समर्थ सृष्टिकर्ता प्रभु तेरे पास ही है ।
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चाहे तू सँपूर्ण लोकों में फिर आये, जो भी तेरे कर्मानुसार भगवान् देंगे, वही तुझे मिलेगा ।
(क्रमशः)
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