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*हम जीवैं इहि आसरे, सुमिरण के आधार ।*
*दादू छिटके हाथ थैं, तो हमको वार न पार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*शरण का अंग ८३*
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उदर आसरे ऊपज्या, प्राण पठंगे१ माँहिं ।
सो शरण क्यों छाड़ ही, मूरख समझै नाँहिं ॥९॥
पेट के आश्रय रहकर ही उत्पन्न हुआ है, अत: प्राणी शरण रूप संबन्ध१ वाला ही है, वह शरण को कैसे छोड़ेगा ? छोड़ते हैं वे मूर्ख समझते नहीं ।
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अग्नि आश्रय काष्ट के, काष्ट सु शरणे आग ।
जुदे होत जीवसौं गये, रहै एकठे लाग ॥१०॥
अग्नि काष्ट के आश्रय रहता है और काष्ट अग्नि के आश्रय रहता है । जब तक एकत्र रहते हैं तब तक जीवित रहते हैं, जब अग्नि प्रगट होकर अलग होता है तब दोनों ही नष्ट हो जाते हैं अत: शरण में रहना ही जीवना है ।
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अठारह भार अंधियार को, देखो दीपक खाय ।
सो रज्जब शरणे बिना, वायु लागि बुझ जाय ॥११॥
अठारह भार वनस्पतियों के अंधेरे को उनमें रहने वाला अग्नि नष्ट नहीं करता किन्तु दीपक कर देता है, तो भी शरण के बिना उन्ही वृक्षों की वायु लगते ही बुझ जाता है ।
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तिहुँ काल ताकैं शरण, तन मन काचे जानि ।
आश्रय बिन अंतक उदय, प्राण पिण्ड ह्वै हानि ॥१२॥
बाल, युवा, वृद्धा तीनों अवस्था के समय में तन मन को काचे समझकर संतों की शरण देखना चाहिये । संतों के आश्रय लिये बिना काल का उदय होकर प्राणी के शरीर की बारम्बार हानि होती है, मुक्ति नहीं होती ।
(क्रमशः)
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