रविवार, 15 सितंबर 2019

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*तो जीवीजे जीवणां, सुमिरै श्वासै श्वास ।*
*दादू प्रकट पीव मिलै, तो अंतर होइ उजास ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. २४)
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साभार ~ Atul Verma
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ताओ उपनिषाद, अध्याय 10
OSHO
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अगर नाभि से श्वास न ली जा सके, तो बच्चों जैसी सरलता असंभव है। जबकि उस श्वास के साथ ही बच्चे जैसी नमनीयता और तरलता पैदा होती है।
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तो पहला कि आपकी श्वास नाभि से चलने लगे। चलें, उठें, बैठें, खयाल रखें कि नाभि से श्वास चल रही है। ताओ की प्राण-साधना के तीन हिस्से हैं। पहला, श्वास नाभि से चले। आप तीन सप्ताह का प्रयोग करके भी देखें, तो दंग रह जाएंगे, कि आपकी नींद गहरी हो गई और आपका व्यक्तित्व संतुलित होने लगा। श्वास साधारण बात नहीं है, सारे प्राण की व्यवस्था उससे जुड़ी है।
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तो जैसी श्वास होगी, वैसी ही आपके प्राणों में व्यवस्था या अव्यवस्था पैदा होती है। आप क्रोध के समय में लयबद्ध श्वास नहीं ले सकते और अगर लयबद्ध श्वास लें, तो क्रोध नहीं कर सकते। क्रोध के क्षण में श्वास का उखड़ जाना जरूरी है, तो ही शरीर उत्तप्त हो पाता है और शरीर की ग्रंथियां जहर छोड़ पाती हैं। तो पहला सूत्र है, श्वास को धीरे-धीरे नाभि पर ले आना। सीने का काम ही न रह जाए।
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दूसरा है कि सदा बाहर जाती श्वास पर ध्यान देना। भीतर आती श्वास पर बिलकुल ध्यान नहीं देना। जब श्वास बाहर जाए, तो जितने जोर से श्वास को उलीचा जा सके, उलीच देना; और भीतर कभी श्वास अपनी तरफ से नहीं लेना। जितनी आए आ जाने देना। आने की प्रक्रिया परमात्मा पर छोड़ देनी और भेजने की प्रक्रिया जितनी हमसे उलीचते बन सके, उलीच देना। इसके अदभुत परिणाम होते हैं।
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हम सभी लोग श्वास लेने में तो बहुत उत्सुकता दिखाते हैं, छोड़ने में नहीं। अगर आप ध्यान करेंगे, तो हमारी एम्फेसिस कभी छोड़ने पर नहीं होती, सदा लेने पर होती है। यह सिर्फ श्वास का ही सवाल नहीं है; हमारा पूरा जीवन ही लेने पर निर्भर होता है, देने पर नहीं। जो व्यक्ति श्वास छोड़ने पर जोर देगा, उसके पूरे व्यक्तित्व में दान और देना अपने आप गहन हो जाएगा।
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हम एक आदमी की श्वास जांच करके कह सकते हैं कि यह आदमी लेने में रस लेता होगा या देने में। अनिवार्यरूपेण, श्वास को आप धोखा नहीं दे सकते। कंजूस आदमी कभी भी श्वास छोड़ने में सुख अनुभव नहीं करता। मनसविद कहते हैं कि कंजूस व्यक्ति सिर्फ धन को ही नहीं रोकता, सब कुछ रोकने लगता है।
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कंजूस कांस्टीपेशन में जीता है, सब तरह के कांस्टीपेशन में। सौ में नब्बे मौकों पर कब्जियत आपके चित्त की कंजूसी का परिणाम होती है। सभी चीजों को रोकने का मन होता है, तो मल तक को रोक लेता है। श्वास को भी रोक लेता है। देते में डरता है। बस लेने भर को आतुर होता है।
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लेकिन जीवन का नियम है: जितना ज्यादा देंगे, उतना मिलता है। अगर आपने श्वास छोड़ने में कंजूसी दिखाई, तो आप पा नहीं सकेंगे। क्योंकि पाएंगे कहां से? सिर्फ गंदी श्वास भीतर इकट्ठी हो जाएगी। सिर्फ कार्बन डाय-आक्साइड भीतर इकट्ठा हो जाएगी।
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कोई छह हजार छिद्र हैं आपके श्वास के यंत्र में। हम ज्यादा से ज्यादा डेढ़-दो हजार छिद्रों तक श्वास लेते हैं। चार हजार छिद्र सदा ही कार्बन डाय-आक्साइड से भरे रहते हैं। हम उन्हें कभी खाली ही नहीं करते हैं। हम गंदगी को अपने भीतर इकट्ठा कर लेते हैं और भीतर गंदगी की पर्तें इकट्ठी होती चली जाती हैं।
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ताओ का मानना है कि आप श्वास को उलीचें और लेने की फिक्र न करें। लेना तो अपने आप हो जाएगा, उलीचना भर काफी है। और जितनी आप श्वास को उलीच देंगे, उतनी ताजी श्वास भीतर चली आएगी। यह उलीचने पर जोर देने का कारण है, क्योंकि इस जोर की बदलाहट भर से आपके पूरे जीवन में देने की संभावना बढ़ने लगेगी।
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हमारा सारा क्रोध, सारी घृणा और सारी ईर्ष्या मात्र इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारे जीवन का सारा उलझाव क्या है? देने की हमें जरा भी इच्छा नहीं है और लेना हम बहुत चाहते हैं। जो दे नहीं सकता, उसे कुछ भी नहीं मिलेगा। और जो दे सकता है, उसे सदा हजार गुना मिल जाता है। तो कार्बन डायआक्साइड उलीचिए और प्राणवायु और आक्सीजन भीतर भर जाती है। यही पूरे जीवन का सूत्र है।
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तो लाओत्से का दूसरा सूत्र है: सदा श्वास को फेंकिए; लेने को भूल ही जाइए। अगर आपका जोर छोड़ने पर हो और लेने पर नही, तो चित्त एकदम नमनीय हो जाएगा। क्योंकि लेने में तनाव और जबर्दस्ती होती है। छोड़ने में हलकापन आता है।
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और तीसरा सूत्र है कि यह जो श्वास का आना-जाना है, इस से अपने को पृथक न समझें। जब श्वास बाहर जाए, तो समझें कि मैं बाहर चला गया और जब भीतर आए, तो समझें कि मैं भीतर आ गया। प्राण के साथ एक हो जाएं।
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हम क्या करते हैं? हम कहते हैं, श्वास मुझमें आई, श्वास मुझसे बाहर गई। लाओत्से इससे बिल्कुल उल्टी बात कहता है। वह कहता है, श्वास के साथ मैं बाहर गया, श्वास के साथ मैं भीतर आया। मैं ही बाहर हूं, मैं ही भीतर हूं। श्वास के साथ इस शरीर में भीतर आता हूं, श्वास के साथ इस शरीर के बाहर विराट शरीर में जाता हूं।
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चलते, उठते, बैठते, अगर यह खयाल रख सकें कि श्वास के साथ मैं बाहर गया और श्वास के साथ मैं भीतर आया। इसका जप निर्मित हो जाए। यह धीरे-धीरे जप की भांति आपके भीतर गूंजने लगे, तो अद्वैत फलित होता है, तो अद्वैत का अनुभव होता है।
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और अगर ये तीन बातें ध्यानपूर्वक हो जाएं, तो लाओत्से कहता है, "जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता के द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा देता है, तो वह शिशुवत कोमल हो जाता है।"

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