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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४३ - उपदेश । पँजाबी त्रिताल
इत१ घर चोर न मूसे२ कोई,
अंतर है जे जाने सोई ॥टेक॥
जागहु रे जन तत्त न जाइ,
जागत है सो रह्या समाइ ॥१॥
जतन - जतन कर राखहु सार,
तस्कर उपजै कौन विचार ॥२॥
इब३ कर दादू जाणैं जे,
तो साहिब शरणागति ले ॥३॥
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कल्याणप्रद उपदेश कर रहे हैं -
जो अपने भीतर आत्म - स्वरूप ब्रह्म है, उसे जो जानते हैं, उनके यहां१ अन्त:करण रूप घर से काम - क्रोधादिक चोर ज्ञान - धन को नहीं चुरा२ सकते ।
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हे लोगो ! मोह निद्रा से जागो, जिससे ज्ञान जन्य सार आनन्द न जा सकेगा । जो ज्ञान जाग्रत में है, वह उसी आनँद में समाया रहता है ।
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यदि तुम बारँबार विचार रूप उपाय द्वारा सार - ज्ञान की रक्षा करोगे, तो किस विचार से हृदय में कामादि चोर उत्पन्न हो सकेंगे ? अर्थात् आत्म - ज्ञान के रहते कामादि को उत्पन्न करने वाला कोई भी विचार हृदय में नहीं आता ।
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इस३ प्रकार, जो मन से जन्य कामादि को चोर जानकर सचेत रहता है तो उसे प्रभु अपनी शरण में लेते हैं अर्थात् अपने में ही लय कर लेते हैं ।
(क्रमशः)

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