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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४५ - गर्व हानिकर । पँचम ताल ।
गर्व न कीजिये रे, गर्वै होइ विनास ।
गर्वै गोविन्द ना मिलै, गर्वै नरक निवास ॥टेक॥
गर्वै रसातल जाइये, गर्वै घोर अँधार ।
गर्वै भौ - जल डूबिये, गर्वै वार न पार ॥१॥
गर्वै पार न पाइये, गर्वै जमपुर जाइ ।
गर्वै को छूटै नहीं, गर्वै बंधे आइ ॥२॥
गर्वै भाव न ऊपजै, गर्वै भक्ति न होइ ।
गर्वै पिव क्यों पाइये, गर्वै करै जनि कोइ ॥३॥
गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।
दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥४॥
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गर्व को हानिकर बताते हुये उसे न करने की प्रेरणा कर रहे हैं -
अरे ! गर्व मत करो, गर्व से विनाश होता है । गर्व करने से साधना द्वारा भी गोविन्द नहीं मिलते, गर्व से नरक में निवास होता है,
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रसातल में जाता है, घोर अँधकार में पड़ता है । वार - पार न पाकर सँसार - सिन्धु के मध्य क्लेश - जल में ही डूबता है,
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किसी प्रकार पार नहीं जा सकता, यमपुरी में जाता है, मुक्त नहीं होता, प्रत्युत बन्धन में पड़ता है,
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सात्विक श्रद्धा और भक्ति नहीं होती, किसी प्रकार भी प्रभु की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए गर्व कोई भी न करे ।
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गर्व से अति विनाश होता है, बहुत विकार उत्पन्न होते हैं । अत: गर्व न करके भजन द्वारा परमात्मा के सन्मुख रहो ।
(क्रमशः)

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