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*अविनाशी के आसरे, अजरावर की ओट ।*
*दादू शरणैं सांच के, कदे न लागै चोट ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*शरण का अंग ८३*
*इस अंग में शरणागति विषयक विचार कर रहे हैं ~*
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शरणा सांई साधु का, पकड़ रही रे प्राण ।
तो रज्जब लागे नहीं, जम जालिम का बाण ॥१॥
हे प्राणी ! परमात्मा और संतों की शरण में पकड़ कर रहेगा तो क्रूरकर्मा यम का बाण तेरे नहीं लग सकेगा ।
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सदगुरु सांई साधु के, शरणे धक्का नाँहिं ।
काल चोट को ओट यहु, समझ देख मन माँहिं ॥२॥
सदगुरु, परमात्मा और संतों की शरण में रहने से संताप नहीं होता, काल की चोट से बचने के लिये यह सदगुरु आदि की शरण आड है, तू भी मन में समझ कर देखले ।
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शरणा लीजे साधु का, शरण गहि गुरु पीर ।
रज्जब खंडा लाख का, रहै म्यान में वीर ॥३॥
हे भाई ! लाख रुपये की कीमत का खांडा भी म्यान की शरण में रहता है, अत: संतों की तथा सिद्ध गुरु की शरण ग्रहण कर ।
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सांचे के शरणे बचै, सूत पान दिव१ देत ।
तो रज्जब सुन साध का, शरण क्यों नहीं लेत ॥४॥
सच्चे मनुष्य की शरण में कच्चा सूत और पीपल का पत्ता गर्म लोह के गोला१ से बच जाता है, तब हमारी बात सुनकर सच्चे संत की शरण क्यों नहीं लेता ? पूर्व काल में सत्य - झूठ का न्याय करने के लिये हाथ पर कच्चा सूत लपेट कर वा पीपल का पत्ता रखकर गर्म लोहा का गोला हाथ पर रखते थे, सच्चे मनुष्य के हाथ पर वे नहीं जलते थे और झूठे के हाथ पर वे जल कर हाथ भी जाता था, वही उदाहरण इसमें दिया है ।
(क्रमशः)

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