शनिवार, 7 सितंबर 2019

= ४२ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू काढे काल मुखि, अंधे लोचन देइ ।*
*दादू ऐसा गुरु मिल्या, जीव ब्रह्म कर लेइ ॥*
========================
साभार ~ @Punjabhai Bharadiya

अंधा आदमी एक हुआ बुद्ध के समय में। बुद्ध एक गांव में गए, उस अंधे आदमी को उसके मित्र समझाते थे कि प्रकाश है, लेकिन वह मानता नहीं था। वह उनसे कहता था कि मैं छूकर देखना चाहता हूं कि प्रकाश कैसा है? तो प्रकाश को स्पर्श करने का कोई उपाय नहीं है। वह कहता था कि मैं चख कर देखना चाहता हूं कि प्रकाश कैसा है? लेकिन चखने का भी कोई उपाय नहीं है। वह कहता था, तुम प्रकाश को बजाओ, उसमें कोई धुन निकले, तो मैं धुन ही सुन लूं। यह भी कोई उपाय नहीं है।

फिर बुद्ध उस गांव में आए तो उसके मित्र उस अंधे आदमी को लेकर बुद्ध के पास गए और उन्होंने कहा, आप तो बहुत विचारपूर्ण हैं, इसे समझा दें। यह प्रकाश को मानने से इनकार करता है।

बुद्ध ने कहा, अगर वह मान लेता तो ही मैं उसे गलत कहता। वह नहीं मानता, यह तो ठीक है। उसे नहीं दिखाई पड़ता, वह कैसे माने? और मेरे पास तुम व्यर्थ लाए, मेरी बजाय तुम किसी वैद्य के पास ले जाओ। उसे उपदेश की नहीं, उपचार की जरूरत है। उसकी चिकित्सा होनी चाहिए, उसका इलाज होना चाहिए। समझाना व्यर्थ है, क्योंकि प्रकाश को देखने के लिए आंखें चाहिए, प्रकाश को देखने के लिए उपदेशों की कोई भी आवश्यकता नहीं है। और आंख नहीं है तो कितना ही समझाओ, प्रकाश का कोई अनुभव नहीं हो सकता और न प्रकाश पर वस्तुतः कोई श्रद्धा हो सकती है।

वे मित्र उस अंधे आदमी को चिकित्सकों के पास ले गए। उसकी आंख पर जाली थी, वह कुछ ही दिनों के इलाज से ठीक हो गई, कट गई। वह आदमी नाचता हुआ, भागता हुआ बुद्ध को धन्यवाद देने आया, उनके पैरों में गिर पड़ा और उसने कहा कि अब मैं क्या कहूं? प्रकाश तो है, पहले भी था, लेकिन मेरे पास आंखें नहीं थीं।

अब यह जो अनुभव है बहुत दूसरे प्रकार का है। यह अनुभव प्राणों का अनुभव हो गया। इस अनुभव को अब कोई झूठा नहीं कर सकता, इस अनुभव को अब कोई खंडित नहीं कर सकता, अब कोई तर्क इसे नष्ट नहीं कर सकता, अब कोई इसे हिला नहीं सकता, डिगा नहीं सकता। यह तो प्राणों के प्राण ने जाना कि प्रकाश है। ठीक ऐसे ही परमात्मा भी जाना जा सकता है। लेकिन उसके लिए भी आंख चाहिए। ये जो हमारी साधारण आंखें हैं, ये केवल वस्तुओं को, पदार्थों को देख पाती हैं। और एक विवेक की, विचार की आंख होती है, जो परमात्मा को भी जान सकती है। उसे जगाने और खोलने की जरूरत है। वह हरेक के भीतर है और हरेक के भीतर बंद पड़ी हुई है। जब उस आंख को कोई खोलता है और जगा लेता है तो उसे परमात्मा का अनुभव होता है।

उस अनुभव में न तो कोई सगुण और निर्गुण है; उस अनुभव में न तो हिंदुओं का परमात्मा है, न मुसलमानों का; उस अनुभव में न तो ईसाइयों का परमात्मा है, न किसी और धर्म वालों का। उस अनुभव में तो यह सारी सत्ता, यह सारा विश्व ही एक परमात्मा का रूप दिखाई पड़ने लगता है। उस अनुभव में तो फूल में भी परमात्मा दिखता है, वृक्ष में भी, पत्थर में भी, मनुष्य में भी, पक्षी में भी। उसमें तो दिखाई पड़ता है कि यह पूरा का पूरा जीवन, यह जो जीवन-शक्ति है जो सब तरफ फैली हुई है, यह सभी कुछ परमात्मा का अनुभव देने लगती है। वहां कोई परमात्मा मनुष्य की भांति खड़ा नहीं होता, कि हम उससे बातें कर रहे हैं और वह हमारे सामने खड़ा है। वहां तो समग्र जीवन, सारी सृष्टि ही परमात्म-स्वरूप अनुभव होती है।

और तब जीवन में एक क्रांति हो जाती है। और तब व्यक्ति का पूरा का पूरा आमूल आचरण बदल जाता है। फिर वह और ढंग से जीता है, और ढंग से बोलता है, और ढंग से उठता है।

लेकिन विश्वास करने वाले आदमी के जीवन में कोई फर्क नहीं होता। विश्वास करने वाले का जीवन वैसा ही होता है जैसा अविश्वास करने वाले का जीवन होता है। तुम उसे धक्का दो तो वह भी तुम्हें धक्का देगा; तुम उसे गाली दो तो वह तुम्हें दुगुने वजन की गाली देगा; तुम ईंट मारो तो वह पत्थर मारेगा। उसे भी क्रोध होता है, वह भीर् ईष्या से भरता है, वह भी गुस्से में आता है–जो विश्वास करने वाला है। लेकिन जो परमात्मा को जानता है उसका जीवन बदल जाता है। उसके जीवन में घृणा, क्रोध, हिंसा समाप्त हो जाते हैं। उसके जीवन में प्रेम ही प्रेम रह जाता है। वही सबूत है, वही प्रमाण है इस बात का कि उसने जाना है। उसके जीवन में सारी बात बदल जाती है। उसके जीवन में कोई दुख, कोई चिंता नहीं रह जाती। मृत्यु भी आ जाए तो भी उसके जीवन में आनंद ही बजता रहता है, उसके हृदय में गीत ही गूंजते रहते हैं।

ओशो, सबै सयाने एक मत(प्रवचन-10)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें