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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३८ - यतिताल
क्या कीजे मानुष जन्म को,
राम न जपहि गंवारा ।
माया के मद मातो बहै,
भूल रह्या सँसारा ॥टेक॥
हिरदै राम न आवई,
आवै विषय विकारा रे ।
हरि मारग सूझै नहीं,
कूप परत नहिं बारा रे ॥१॥
आपा अग्नि जु आप में,
तातैं अहनिशि जरै शरीरा रे ।
भाव भक्ति भावै नहीं,
पीवै न हरि जल नीरा रे ॥२॥
मैं मेरी सब सूझई,
सूझै माया जालो रे ।
राम नाम सूझै नहीं,
अँध न सूझे कालो रे ॥३॥
ऐसे ही जन्म गमाइया,
जित आया तित जाइ रे ।
राम रसायन ना पिया,
जन दादू हेत लगाइ रे ॥४॥
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हे मूर्ख ! यदि राम नाम न जपा, तब इस मनुष्य जन्म का क्या उपयोग करेगा ? विषय - सुख तो सभी योनियों में प्राप्त था, यह तो प्रभु भक्ति के लिए ही मिला है । तू प्रभु को भूलकर माया - मद से मतवाला हुआ सँसार में विचर रहा है ।
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तेरे हृदय में राम का स्मरण तो कभी नहीं आता, सदा विषय - विकारों का ही चिन्तन होता रहता है । प्रभु के पास पहुँचाने वाला भक्ति - मार्ग तुझे नहीं दीखता, किन्तु विषय कूप को देखकर भी उसमें अति शीघ्र पड़ता है ।
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अपने में जो अहँकार रूप अग्नि है, उससे दिन रात शरीर जलता रहता है, फिर भी तुझे श्रद्धा - भक्ति प्रिय नहीं लगती, तू हरि - भक्ति - जल नहीं पान करता ।
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मुझे "मैं और मेरी" सम्बन्धी बातें तथा माया - जाल ही दीखता है । हे अँध ! तू काल और राम - नाम को नहीं देखता ।
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तूने अपना मानव जन्म व्यर्थ ही खो दिया है । प्रेम सहित राम भक्ति - रसायन का पान नहीं किया । अत: अब जिधर से आया था, उधर चौरासी लाख योनियों में ही फिर जा रहा है ।
(क्रमशः)

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