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*काल कीट तन काठ को, जरा जन्म को खाइ ।*
*दादू दिन दिन जीव की, आयु घटंती जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*काल का अंग ८४*
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रज्जब रहै न कोय, सब को मरना है सही५ ।
काल कवल१ जग जोय, भूख२ भख३ मेल्है४ नहीं ॥५॥
सबको मरना है, कोई भी जीवित नहीं रहेगा यह सत्य५ है । देख काल का ग्रास१ है, काल२ अपने भक्ष्य३ को नहीं छोड़े गा४ ।
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रज्जब कोल्हू काल के, सब तनु तिली समान ।
सो उबरे१ कहि कौन विधि, जो आये विच घान ॥६॥
काल कोल्हू के समान है, सब शरीर तिलों के समान है, जो कोल्हू के घान में आ गये है वे तिल कहो किस प्रकार बच१ सकते हैं ? वैसे ही काल से कोई नहीं बचता ।
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निशि दिन जामण मरण में, चंद सूर आकाश ।
त्यों जीव सहित सब सानि१ कर, काल करै इक ग्रास ॥७॥
जैसे आकाश में रात्रि -दिन में चंद सूर्य का उदय अस्त रूप जन्म-मरण होता है, वैसे ही काल जीव के सहित सबको मिलाकर१ एक ही ग्रास कर जायगा अर्थात प्रलय काल में एक साथ ही नष्ट कर देता है ।
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जैसे शशि के सकल दिशि, मंडल मँडै अकाश ।
त्यों रज्जब सहसी नहीं, पिंड प्राण१ के पास ॥८॥
जैसे आकाश में चन्द्रमा के सब ओर मंडल मँडता है, वह नहीं रहता, वैसे ही प्राणी१ के पास शरीर नहीं रहेगा ।
(क्रमशः)
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