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*दादू मरणे थीं तूं मत डरै, सब जग मरता जोइ ।*
*मिल कर मरणा राम सौं, तो कलि अजरावर होइ ॥*
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साभार ~ Soni Manoj
कृष्ण स्मृति ☘️
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हालतें फिर, .........
वैसी ही खड़ी हो गयी हैं जैसी महाभारत के समय ।
महाभारत के समय भी दो वर्ग थे । एक वर्ग था जो निपट भौतिकवादी था, जिसकी पूरी दृष्टि शरीर के अतिरिक्त किसीको स्वीकार नहीं करती थी । जिसकी दृष्टि भोग के अतिरिक्त किसी तरह के योग के लिए कोई क्षमता न रखती थी । आत्मा का होना न होने की बात थी । जिंदगी थी भोग, लूट-खसोट । जिंदगी शरीर से और शरीर की इंद्रियों के बाहर कोई अर्थ न रखती थी । एक वर्ग । उसी वर्ग के खिलाफ वह संघर्ष हुआ था । कृष्ण को उस संघर्ष को करवाना पड़ा था । जरूरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों, वह अशुभ की शक्तियों के सामने खड़ी हो जायें ।
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आज फिर करीब-करीब हालत वैसी हो गयी है और हो जायेगी बीस साल के भीतर । एक तरफ भौतिकवाद, 'मटीरियलिज्म' अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हो जायेगा, और दूसरी तरफ फिर कमजोर ताकतें होंगी शुभ की । शुभ में एक बुनियादी कमजोरी है । वह लड़ने से हटना चाहता है । अर्जुन भला आदमी है । अर्जुन शब्द का मतलब होता है, सीधा-सादा । तिरछा-इरछा जरा-भी नहीं । अ-रिजु । बहुत सीधा-सादा आदमी है । सरल चित्त है । देखता है कि फिजूल की झंझट कौन करे, हट जाओ । अर्जुन सदा ही हटता रहा है । वह जो अ-रिजु आदमी है, जो सीधा-सादा आदमी है, वह हट जाता है । वह कता है, मत झगड़ा करो, जगह छोड़ दो ।
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कृष्ण अर्जुन से कहीं ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं । कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं है । लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है, और सरलता पलायन नहीं है । वह जम कर खडे़ हो गये हैं, वे नहीं भागने देंगे । शायद फिर पृथ्वी दो हिस्सों में बंट जायेगी ।
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सदा ऐसा होता है, कि निर्णायक, 'डिसीसिव मोमेंट' आ जाते हैं, जब फिर लड़ने की बात होती है । उसमें गांधी और विनोबा और रसल काम नहीं पडे़ंगे । क्योंकि एक अर्थ में वे सब अर्जुन हैं । वे कहेंगे, हट जाओ; वे कहेंगे, मर जाओ लेकिन लड़ो मत ।
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कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरूरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए । शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत रखनी चाहिए । निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता । अशुभ हो नहीं सकता । क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है । लेकिन अशुभ जीत न पाये, इसलिए लडा़ई है ।
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तो धीरे-धीरे दो हिस्से दुनिया के बंट जायेंगे, जल्दी ही । जहां एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतंत्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा । लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते हैं ? मिल सकते हैं । क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियां इस जगह आ जाती हैं जहां कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियां उस चेतना को भी पुकार लेती हैं, उस चेतना को भी जन्म दे देती हैं । वह व्यक्ति भी जन्म जाता है ।
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इसलिए भी मैं कहता हूं की कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है । और जब साधारण, सीधे-सादे, अच्छे - आदमियों की आवाजें बेमानी हो जायेंगी -- क्योंकि बुरा आदमी अच्छे आदमी की आवाजों से न डरता है, न भय खाता है, न रुकता है । तो वह बढ़ता चला जाता है । बल्कि अच्छा आदमी जितना सिकुड़ता है, बुरे आदमी के लिए उतना ही आनंदपूर्ण हो जाता है ।
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महाभारत के बाद हिंदुस्तान में बहुत अच्छे आदमी हुए - बुद्ध हैं, महावीर हैं -- इनकी अच्छाई की कोई कमी नहीं है । इनकी अच्छाई की कोई सीमा नहीं है । लेकिन इनकी अच्छाई के प्रभाव में मुल्क सिकुड़ गया । हमारा चित्त सिकुड़ गया । और उस सिकुडे़ हुए चित्त पर सारी दुनिया के आक्रामक टूट पडे़ । आक्रमण करने ही हम नहीं जाते हैं, आक्रमण को बुलाते भी हमीं हैं । और जब तुम किसीको मारते हो, तभी तुम जिम्मेवार नहीं होते, जब तुम किसीकी मार खाते हो तब भी तुम जिम्मेवार होते ही हो । क्योंकि किसी के चेहरे पर चांटा मारना भी एक कृत्य है जिसमें पचास प्रतिशत तुम जिम्मेवार हो, पचास प्रतिशत वह आदमी जिम्मेवार है जिसने चांटे को निमंत्रित किया है ।
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सहा, 'पैसीविटी' दिखायी, स्वीकार किया, बुलाया कि मारो । अगर तुम पर कोई चांटा मारता है तो पचास 'परसेंट' तुम भी जिम्मेवार होते हो, तुम बुलाते हो । अच्छे आदमियों की एक लंबी कतार ने -- निपट अच्छे आदमियों की लंबी कतार ने -- इस मुल्क के मन को सिकोड़ दिया, और हमने बुलाया, आमंत्रण दिया कि आओ । हमारा आमंत्रण मानकर बहुत लोग आये । उन्होंने हमें वर्षों तक गुलाम रखा, दबाया, परेशान किया । अपनी मौज से वे चले भी गये । लेकिन हम अभी भी, हमारी मनोदशा संकोच की ही है । हम फिर किसी को बुला सकते हैं । अगर कल माओ प्रवेश कर जाये इस मुल्क में, तो उसके लिए जिम्मेदार अकेला माओ नहीं होगा ।
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लेनिन ने बहुत वर्षों पहले एक भविष्यवाणी की थी कि मास्को से कम्यूनिज्म पेकिंग और कलकत्ता होता हुआ लंदन पहुंचेगा । उसकी भविष्यवाणी बड़ी सही मालूम पड़ती है । पेकिंग तो पहुंच गया । कलकत्ते में उसकी पगध्वनि सुनायी पड़ने लगी है । लंदन ज्यादा दूर नहीं है । अब कलकत्ते में कम्यूनिज्म को प्रवेश करने में कोई - कठिनाई नहीं है; क्योंकि भारत का मन सिकुड़ा हुआ है । वह आ जायेगा, उसको स्वीकार करके देश और दब - जायेगा । इसलिए इस देश को तो कृष्ण पर पुनर्विचार करना ही चाहिए ।
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तो कृष्ण को समझना बहुत जरूरी है । कृष्ण शांतिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं है । असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक चुनते हैं । कृष्ण-अवादी हैं । कृष्ण कहते हैं, शांति से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है । युद्ध से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है । मेरा मतलब समझाने का है -- कृष्ण कहते हैं जिससे मंगल-यात्रा गतिमान होती हो, जिससे धर्म विकसित होता हो, जिससे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ती हो, स्वागत है उसका । ऐसा स्वागत चाहिए भी ।
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हमारा देश अगर कृष्ण को समझा होता, तो हम इस भांति नपुंसक न हो गये होते । हमने बहुत अच्छी-अच्छी बातों के पीछे बहुत-बहुत न-मालूम कैसी कुरूपतायें छिपा रखी हैं । हमारी अहिंसा की बात के पीछे हमारी कायरता छिपकर बैठ गयी है । हमारे युद्ध-विरोध के पीछे हमारे मरने का डर छिपकर बैठ गया है ।
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लेकिन हमारे युद्ध न करने से युद्ध बंद नहीं होता, हमारे युद्ध न करने से कोई और हम पर युद्ध जारी रखता है । हम लड़ने न जायें इससे लड़ाई बंद नहीं होती, सिर्फ हम गुलाम बनते हैं । और फिर भी हम लडा़ईयों में घसीटे जाते रहे ।
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यह बडे़ मजे की बात है । हम नहीं लडे़, कोई हम पर हावी हो गया, हमें गुलाम बना लिया और फिर हम उसकी फौजों में लड़ते ही रहे । लडा़ई तो कुछ बंद नहीं हुई । कभी हम मुगल की फौज में लडे़, कभी हम तुर्क की फौज में लडे़, कभी हम हूण की फौज में लडे़ । हम खुद ही न लडे़, गुलाम भी रहे और अपनी गुलामी को बचाने के लिए लड़ते रहे । फिर हम अंग्रेज की फौज में लडे़ लडा़ई तो बंद नहीं हुई । हां, इतना ही हो गया कि हम अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते, अपने जीवन के लिए लड़ते, फिर हम अपनी परतंत्रता के लिए लडे़ कि हमारी परतंत्रता कैसे बनी रहे, इसके लिए भी हमारा आदमी मरता रहा । यह दुखद फल हुआ । यह महाभारत के कारण नहीं । यह फिर से हम महाभारत की हिम्मत न जुटा पाये, उसके कारण ।
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इसलिए मैं कहता हूं कि कृष्ण को समझना थोड़ा मुश्किल तो है । बहुत आसान है समझ लेना एक शांतिवादी की बात, क्योंकि वह एक पहलू चुन लेता है । बहुत आसान है युद्धवादी की बात -- एक हिटलर, एक मुसोलिनी, एक चंगेज़, एक तैमूर, नेपोलियन, सिकंदर -- युद्धखोरी की बात समझने में भी बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि वह कहते हैं कि युद्ध ही जीवन है ।
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शांतिवादी हैं -- रसल हैं, गांधी हैं -- उनकी बात भी समझ लेनी बहुत आसान है । वह कहते हैं कि नहीं, शांति ही जीवन है ।
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कृष्ण की बात समझनी बहुत मुश्किल है । क्योंकि वह कहते हैं कि जीवन दोनों द्वारों से गुजरता है । वह शांति से भी गुजरता है, वह युद्ध से भी गुजरता है । और अगर तुम्हें शांति बनाये रखनी है तो तुम्हें युद्ध की सामर्थ्य रखनी होगी । और अगर तुम्हें युद्ध जारी रखना है तो तुम्हें शांति में तैयारी भी करनी होगी । ये दो पैर हैं जीवन के । इनमें से एक को भी काटा तो लंगड़े और पंगु हो जाते हैं ।
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कृष्ण के पास दोनों पैर हैं । कृष्ण लंगड़े आदमी नहीं है । और मैं मानता हूं कि दोनों पैर प्रत्येक के पास होने चाहिए । जो आदमी लड़ न सके उसमें कुछ कमी हो जाती है । और जो आदमी लड़ न सके, वह आदमी ठीक अर्थों में शांत भी नहीं हो सकता । वह लँगड़ा हो जाता है । जो आदमी शांत न हो सके, वह विक्षिप्त हो जाता है । और जो आदमी शांत न हो सके, वह लडे़गा कैसे ? लड़ने के लिए भी एक शांति चाहिए । तो कृष्ण इस अर्थ में भी भविष्य के लिए उपयोगी हैं, क्योंकि भविष्य में एक निर्णायक बात तय होनी है कि सारी दुनिया को शांतिवादी बनाना है ?
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कृष्ण की बात समग्र जीवन की है, और अगर हमारी समझ में आ जाये तो न तो शांति को छोड़ने की जरूरत है, न युद्ध को छोड़ने की जरूरत है । युद्ध के तल रोज बदलते जायेंगे, निश्चित ही । क्योंकि कृष्ण कोई चंगेज़ नहीं हैं । किसी की हत्या करने के लिए, किसीको दुख देने के लिए उनकी कोई आतुरता नहीं है । लेकिन युद्ध के तल बदलते जायेंगे ।
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ओशो ☘️
कृष्ण स्मृति प्रवचन १
हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक
कृष्ण से संकलन ।
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