🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*भेष न रीझे मेरा निज भर्तार,*
*तातैं कीजै प्रीति विचार ॥*
*दुराचारिणी रच भेष बनावै,*
*शील साच नहिं पिव को भावै ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ६२)
==================
साभार ~ Soni Manoj
🙄😘 चेहरे ही चेहरे 😍😉
°°°°°°°°°°°°°°
दुकानों पर और चेहरे हैं लोगों के, बाजार में और चेहरे हैं, मंदिरों में और चेहरे हैं । चेहरे ही चेहरे है । और तुम ..... कितने चेहरे दिन में बदलते हो, कहना मुश्किल है ।
.
जार्ज गुरुजिएफ, पश्चिम का एक बहुत अदभुत सदगुरु हुआ । वह अक्सर अपने शिष्यों को यह समझाने के लिए कि आदमी के पास कितने चेहरे हैं, एक प्रयोग किया करता था । दो शिष्य बैठे हों -- एक बाएं, एक दाएं; वह एक की तरफ इस तरह देखेगा जैसे मार ही डालेगा और दूसरे की तरफ ऐसे देखेगा जैसे अमृत की वर्षा कर रहा है । दोनों में बाद में कलह हो जाएगी । एक कहेगा कि बहुत दुष्ट आदमी है, इसके पास अब तो मैं जाने से भी डरूंगा । दूसरा कहेगा कि तुम कह क्या रहे हो ! इससे ज्यादा प्यारा आदमी मैंने नहीं देखा । उसकी आंखें देखते थे, कैसी अमृत बरसा रही थीं ।
.
उसका विवाद हल न होता तो वे गुरुजिएफ के पास आते । गुरुजिएफ कहते : तुम दोनों ठीक कह रहे हो । मैं अलग-अलग चेहरे दिखा रहा था । एक चेहरा इसको दिखला रहा था, एक तुमको । मैं तुमसे यह कह रहा था कि यही हालत तुम्हारी है, लेकिन तुम होशपूर्वक नहीं कर रहे हो, मैं होशपूर्वक कर रहा हूं ।
.
पत्नी के पास तुम्हारा एक चेहरा होता है, प्रेयसी के पास तुम्हारा दूसरा चेहरा होता है । प्रेयसी के पास तुम कैसे गदगद दिखाई पड़ते हो ! पत्नी के पास तुम कैसे उजडे़-उजडे़ मालूम होते हो, उखडे़-उखडे़, भागे-भागे !
.
दो आदमी बैठे देर तक शराबखाने में शराब पीते रहे । पहले ने दूसरे से पूछा कि भाईजान, आप इतनी देर-देर तक यहां क्यों बैठे रहते हैं । उसने कहा कि जाऊं तो कहां जाऊं ? घर में कोई है ही नहीं अविवाहित हूं । पहले को तो नशा चढ़ रहा था, एकदम उतर गया । उसने कहा : कहते क्या हो ! अविवाहित होकर और आधी-आधी रात तक यहां बैठते हो !
.
अरे मैं तो यहां इसलिए बैठा हूं कि जाऊं तो कहां जाऊं, घर में पत्नी है । जब बिलकुल नशे से भर जाता हूं, जब ऐसी हालत आ जाती है कि अगर सिंहनी की मांद में भी मुझे जाना पडे़ तो भी जा सकता हूं, क्योंकि होश ही नहीं रहता - तब घर जाता हूं । फिर मुझे पता नहीं क्या गुजरती है ।
.
पाखंड पैदा हुआ है तुम्हारे अनुशासन से, तुम्हारे धर्म से । इस पाखंड का मैं निश्चित विरोधी हूं । इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं चाहता हूं कि लोग अराजक हो जाएं, स्वच्छंद हो जाएं । इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि मैं चाहता हूं लोग स्वतंत्र हो जाएं ।
.
*स्वच्छंद शब्द भी हमने खराब कर लिया है, नहीं तो बहुत प्यारा है । उसका अर्थ उच्छृंखल कर लिया, करना नहीं चाहिए । स्वच्छंद का अर्थ होता है : स्वयं के छंद में आबद्ध एक भीतरी संगीत में लयबद्ध । स्वच्छंद बडा़ प्यारा शब्द है । स्वतंत्र से भी प्यारा शब्द है । स्वतंत्र में भी थोड़ी सी तांत्रिकता रहती है, थोड़ी यांत्रिकता रहती है, थोड़ी औपचारिकता रहती है । स्वच्छंदता में तो सिर्फ एक गीतमयता है, एक लयबद्धता है -- स्वयं के छंद में जो आबद्ध है ।*
.
बुद्ध स्वच्छंद है । और ऐसे ही व्यक्ति वस्तुत : अनुशासित भी; लेकिन अनुशासन भीतर से आता है । यह ऊपर से थोपा गया आचरण नहीं है ।
.
मैं आचरण-विरोधी हूं, अंतस का पक्षपाती हूं । अंतस से आचरण आए तो शुभ । और जबरदस्ती तुम ऊपर से थोप लो -- क्योंकि लोग कहते हैं, क्योंकि परिवार कहता है, क्योंकि परंपरा कहती है - तो तुम दो हिस्सों में बंट जाओगे भीतर तुम कुछ और, बाहर तुम कुछ और । तुम्हारी जिंदगी में तब दो दरवाजे हो जाएंगे -- एक तो बैठकखाना, जहां तुम मिलते हो एक ढंग से; और एक भीतर का दरवाजा, पीछे का दरवाजा, जहां तुम्हारी असली शक्लें देखी जाती हैं । बाहर तो तुम मुस्कराते हुए मिलते हो । वह मुस्कराहट कूटनीतिक है, राजनैतिक है ।
.
राजनेता तो मुस्कुराते ही रहते हैं । कहीं कोई उनके हृदय में मुस्कराहट नहीं होती । और जब चुनाव आता है, तब तो मुस्कराहट का एकदम मौसम आता है ! जो देखो वही मुस्कुरा रहा है । जैसे वसंत में फूल खिलते हैं न, ऐसे चुनाव में मुस्कुराहटें खिलती हैं । जिनकी शक्ल पर मुस्कराहट जैसी चीज बिलकुल ही असंभव मालूम हो -- जैसे मोरारजी देसाई , जिनकी शक्ल और मुस्कराहट में कोई संबंध नहीं मालूम होता -- वहां भी मुस्कराहट आ जाती है ! पद पर पहुंचते ही मुस्कराहट खो जाती है । क्या जरूरत रही ! वह तो खुशामद थी लोगों की ।
.
तुम देखते हो, कार्टर जब चुनाव लड़ा, तब उसके बत्तीसों दांत गिन सकते थे । अब कितने गिन सकते हो ? धीरे-धीरे कम होते गए दांत । अब तो दांत वगैरह दिखाई नहीं पड़ते । अब तो कार्टर वेदांती हो गए हैं । अब गई वह बत्तीसा-मुस्कान । अब तो भूल-भाल गए, चौकड़ी भूल गई । मगर अभी चुनाव फिर आ रहा है, मुस्कराहट आ जाएगी । वसंत आ रहा है फिर, फिर मुस्कराहटें लगेंगी ।
.
लेकिन तुम भी छोटे-मोटे तल पर यही कर रहे हो । जब किसी से काम होता है तो तुम मुस्कराहट से मिलते हो; और जब किसी से काम नहीं होता तो तुम यूं गुजर जाते हो जैसे पहचानते भी नहीं । अपने भी अजनबी हो जाते हैं जब काम नहीं । और जब काम होता है तब अजनबी भी अपने हो जाते हैं । इसको मैं आचरण नहीं कहता । इसको मैं कोई व्यवस्था नहीं कहता । यह तो थोथा पाखंड है ।
.
इस पाखंड से मुक्त होना आवश्यक है, तभी कोई व्यक्ति जीवन में वस्तुतः धार्मिक हो पाता है । धार्मिक होना एक क्रांति है । और धार्मिक होने के लिए निश्चित एक अराजकता से गुजरना पड़ता है । क्योंकि सब पुराना कूडा़-कर्कट निकाल कर बाहर करना होता है । पुराने खंडहर गिराने पड़ते हैं, तभी नए भवन खडे़ हो सकते हैं । √
.
• ओशो ~ रहिमन धागा प्रेम का
प्रवचन ८ स्वानुभव ही मुक्ति का द्वार है से संकलन ।
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें