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*भयो अपंक पंक नहि लागै,*
*निर्मल संग सहाई ।*
*पूर्ण ब्रह्म अखिल अविनाशी,*
*तिहिं तज अनत न जाई ॥*
*सो शर लागि प्रेम प्रकाशा,*
*प्रकटी प्रीतम वाणी ।*
*दादू दीन दयाल ही जानै,*
*सुख में सुरति समानी ॥*
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साभार ~ Kripa Shankar Bawalia Mudgal
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
गीता जयंती और मोक्षदा एकादशी की सभी श्रद्धालुओं को शुभ कामनाएँ .........
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गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन(जन्म-मरण) से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है । गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है।
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स्वयं भगवान ने दिया है गीता का उपदेश ..........
विश्व के किसी भी धर्म या संप्रदाय में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई जाती| हिंदू धर्म में भी सिर्फ गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं, जबकि गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है .........
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥
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श्रीगीताजी की उत्पत्ति धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष की एकादशी को हुई थी। यह तिथि मोक्षदा एकादशी के नाम से विख्यात है। गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए हैं। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है।
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इसके छोटे-छोटे 18 अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश हैं, जो मनुष्य मात्र को नीची से नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
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वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
चित्र सौजन्य ~ मुक्ता अरोड़ा स्वरूप निश्चय

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